Friday, December 23, 2011

Journey throgh Life

Ganya, who was about to marry beautiful Nastasya Filipovna but was not in love with her, wrote a letter to Aglaya and passed it to her through Prince Myshkin. She asked Prince to read it.

"Tonight my fate will be decided. Tell me to quit it, and I will. A word from you would only indicate your kind attitude toward me, nothing more. Upon your words, I'll accept my poverty. I'll accept my desperate position with a smile... "

Aglaya: Enough. This person claims that my saying "quit it" won't compromise me or oblige me. This is supposed to be his written warranty. But he knows: If he quit it by himself, not expecting my approval and not making it known, I would probably become his companion. But his heart is dirty. He wants to get me in exchange for the loss of that hundred thousand. He has no shame. Give him this letter.

Prince: What should I tell him?

Aglaya: Nothing. It's the best answer.

Read it once more..... 
From the legendary novel IDIOT by Fyodor Dostoyevsky.

Thursday, December 22, 2011

मुझे भी भारत रत्न दो


आजादी के बाद के इतिहास में शायद ये पहला पहला मौका होगा जब भारत रत्न सम्मान पर इतनी चर्चा सुनने में आती है. शायद ही कोई सप्ताह ऐसा छूटता होगा जिसमे इस चर्चा से भेंट न होती हो. पंडित से लेकर निरक्षर तक भारत रत्न के विषय में बेबाकी से अपने विचार रखता मिल जाएगा. प्रारंभ में बहुत अच्छा लगा था कि देर से ही सही देश का आम आदमी इन मामलों को लेकर भी जागरूक हो रहा है. अब सिर्फ चंद लोग फैसला नहीं लेंगे कि किसे ये सम्मान मिलाना चाहिए और किसे नहीं, एक बयार चलेगी जो हर दिल को छू कर निकलेगी और कहेगी कि ये है वो इंसान जिसने राष्ट्र के विकास में गंभीर योगदान दिया है, बस अब घोषणा कर दो. वैश्विक द्रष्टिकोण से मालूम नहीं किन्तु विश्व की १/६ आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले इस सम्मान का महत्व स्वयं सिद्ध है. 

एक दिन आया जब (शायद) अडवाणी जी ने पत्रकार वार्ता में अटल जी को ये सम्मान दिए जाने की आकांक्षा जाहिर की. अधिकाँश प्रधान मंत्रियों को जीते-मरते ये सम्मान मिला है, उन्हें भी ये सम्मान प्रदान किया जाना स्वाभाविक प्रक्रिया होता; भले ही उनके प्रधान मंत्रित्व में लोगो को रेडियो पर उनकी बोगस कवितायें सुननी पड़ती थीं. लेकिन अडवाणी जी ने वाजिब तरीके से अनुशंशा न कर मीडिया के सामने वाहवाही लूटते हुए अटल जी के भारत रत्न होने की संभावनाओं पर पलीता लगा दिया. इतना ज्वलंत विचार पहले किसी नेता के दिमाग में नहीं रेंगा था. नेताओं ने अपनी पार्टी के जुझारू नेताओं, जिनके सामने आज के नेताओं का कद बौना है, से बदला लेना सुरु कर दिया. नेता सुनते गाली देने वाली जनता ने इन सबको भी लपेटा.

अगले स्तर का छिछोरापन तब सुरु हुआ जब नेताओं की जगह सुशिक्षित(??) लोग लेने लगे. फिर क्या था हर गली नुक्कड़ पर सुझाव सुरु हुए, जिसे अपने घर में ख़त्म राशन का होश नहीं है वो भी अपनी संगत में दो चार नाम सुझा रहा है. भारत की संस्थापना और क्रान्ति के जनकों से लेकर लूटमार और डाकू तक सारे नाम सुझाए जा चुके हैं. शरद पवार और कबीर के बीच के सारे फासले मिट कर स्वच्छ लोकतंत्र की मुनादी कर रहे हैं. ५००० साल पुराने मुर्दे भी कब्रों और श्मशान घाट से उठ उठ कर अपने अपने नाम सुझा और दावेदारी पेश कर रहे हैं. राम-रावण, कृष्ण-कंश, भीष्म-ध्रितराष्ट्र सब एक दूसरे की सिफारिश कर रहे हैं.

हालत ये है कि अब तो "भारत रत्न" शब्द कान में पड़ते ही स्वाभिमान को ठेस पहुचने लगती है. लगता है कहीं दूर अँधेरे से कोई गालियाँ दे रहा है. कारण संभवतः किसी के द्वारा मेरा नाम न सुझाना होगा. सम्मान पाने का स्वाभाविक हकदार हूँ, राष्ट्र का कुछ ख़ास नुकसान नहीं किया, कर्म शून्य और बेरोजगार भी हूँ, घोटाले, बर्बरता, हत्या, बलात्कार और किसी भी प्रकार के शोषण करने का मौका हाथ नहीं आया और मेरे नाम से भारत की पहचान नहीं, भारत के नाम से मेरी पहचान है.       
Ram

Tuesday, December 13, 2011

From "History" page of Landau Institute for Theoretical Physics

Then came a phone call from a Kosygin’s (then the Prime Minister of the Soviet Union) aid: “How come 75? It is completely beyond me.” Well, a little bit of foot-dragging again. “Oh,” I explain, “It’s ve simple, tovarishch. We will have 15 sectors, each sector has 5 people. Just mult 15 by 5. You see? It is 75, isn’t it?” “Oh, sure,” he replied, “I got it.” After that call, it took only two days for Kosygin to sign the project.
So, when dealing with clerks, remember that they just need some logical construction. Tell him that 15 times 5 is 75, and all problems are solved.

Sunday, December 11, 2011

मूलभूत शिक्षा

जितने आर्थिक और तार्किक स्तरों में हमारा समाज वर्गीकृत है लगभग उतने ही स्तरों में हमारी मूलभूत शिक्षा भी. स्वभावतः उस स्तर की बात न करूँगा जिसका भार उठाने की क्षमता विलासी वर्ग तक सीमित हो. मुश्किलें वहाँ भी हैं लेकिन उनका विश्लेषण मेरे वश की बात नहीं. मैं तो उस वर्ग की बात करूँगा जहाँ बच्चे दोपहर के भोजन की आस में विद्यालय जाते हैं.

जिस राष्ट्र में किसान भूख और कर्ज के कारण आत्म हत्या कर रहे हों वहाँ मध्यांतर भोजन जैसी योजना का क्रियान्वयन नीति नियंताओं की परिपक्व दूरदर्शिता को प्रतिबिंबित करता प्रतीत होता है. ये बात गैर है कि यही नीति नियंता ३० रूपये प्रतिदिन की आमदनी को पर्याप्त समझते हैं, वो भी तब जब ३० रुपये किलो घास भी नहीं मिलती. मेरा सुझाव इन्हें हैं कि ये इसे ३० रूपये की बजाय १० करोड़ जिम्बाब्वे डॉलर कर दें ताकि लोग नोट खा खा के ही मर जायें और कोई भी शिकायत न कर सके कि उसे पर्याप्त पैसे नहीं मिल रहे, पेय जल की शिकायत गरीब नहीं करता.

खैर कम से कम जो बच्चे घर में राशन की अनुपस्थिति के कारण भूखे बैठे रहते थे उनका एक वक्त का भोजन तो पक्का. घटिया और पोषक तत्त्व विहीन यह भोजन उन्हें कुपोषण से ग्रस्त कर मंद गति से काल के गाल में भेजेगा इसकी फिक्र न तो स्कूल प्रबंधन को होती है और न ही बच्चों के माता-पिता को समझ. सरकारी तंत्र का दावा कि इस योजना के क्रियान्वयन से बच्चों के नामांकन और उनकी स्कूल में उपस्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है; जमीनी हकीकत, फर्जी नामांकन, के सामने दम तोड़ता नजर आता है. उस पर पेंच ये कि जिस दिन अधिकारी, जिसे शायद ही उन बच्चों की स्वयं के बच्चों सी परवाह हो, का दौरा होता है उस दिन स्कूल की सफाई से लेकर अध्यापकों की उपस्थिति तक में अन्य दिनों की तुलना में अविश्वसनीय इजाफा हो जाता है.

 
शिक्षा की बात करना तो बेमानी सा लगता है. एक व्यक्ति द्वारा किया गया सामान्य सर्वे ये बताने के लिए काफी है कि अधिकाँश अध्यापक बच्चों को पढ़ाना तो दूर, स्कूल में उपस्थिति तक दर्ज करने नहीं पहुंचते. शेष घर में समय न बिता पाने, व्यक्तिगत काम न होने, पिछले दिनों की नदारदगी को उपस्थिति में परिवर्तित करने या दरबार लगाने के उद्देश्य से स्कूल के दर्शन करते हैं. शिक्षा मित्र रूपी परंपरा ने मूल अध्यापक और शिक्षा मित्र के बीच स्वामी और दास जैसी परंपरा को पुख्ता किया है, और अध्यापन का सारा भार उन शिक्षा मित्रों के सर फूटता है जिनके परिवार गाँवों में प्रतिष्ठा के मूल नहीं हैं. स्कूल में खेलकूद की सुविधाओं का तो अकाल रहता है परन्तु बच्चों का अधिकाँश समय खेलकूद और मध्यान्ह भोजन के इन्तजार में जाता है. शिक्षा के स्तर की प्रतिष्ठा के लिए एक उदाहरण पर्याप्त है. ताजा नियुक्त बी एड डिग्री धारी अध्यापक, जिसने परास्नातक की डिग्री भी संभवतः ले रखी हो, से अगर पूछा जाता है कि पेड़ से टूटा हुआ सेब जमीन पर क्यों गिरता है तो पलक झपकते ही उत्तर मिलता है "न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से". ऊपर की ओर फेंकी गयी गेंद जमीन पर क्यूँ आ गिरती है के सामने बगलें झांकता नजर आता है. ये अध्यापक पहाड़े रटवाने और विकृत भाषा सिखाने के अलावा और क्या कर सकता है भगवान जाने. उस पर तुर्रा ये कि उन्हें शिकायत है कि उनकी योग्यता के अनुरूप पद की प्राप्ति नहीं हुई, वो ये अछूत काम करने के लिए नहीं बने के बहाने के साथ अपनी जिम्मेदारियों से अच्युत हो राष्ट्र के भविष्य के साथ शर्मनाक मजाक करते हैं. और अधिकाँश समय अपनी ताजा गृहस्थी सम्हालने और संवारने में बिताते हैं. बूढ़े हो चुके अध्यापक पैर फैलाकर बच्चों में जातीय विष घोलने और अपने से नीचे वालों के कान उमेठने में बहादुरी समझते हैं.  युवा अद्यापिका  सारा  समय साज श्रृंगार के बारे में चिंतित, अन्य स्त्रियों के चरित्र को चिन्हित करती और हर पुरुष में व्यभिचारी  खोजती  बिताती है एवं उम्रदराज भेदों के लेनदेन और स्वेटर बुनने सरीखे घरेलू काम निबटाते हुए. नैतिक शिक्षा जरूर दी जाती है लेकिन व्यवहार में उसका पालन कहीं नहीं दिखता. शेष कमी अभिभावकों की अशिक्षा और उनकी बच्चों के प्रति गैर जिम्मेदारी से पूरी होती है.

रूस में रक्त क्रांति (प्रारंभ १९०५) से भी पूर्व जो अध्यापक बच्चों को किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना देते थे उनके लिए साइबेरिया भेजने तक की कठोर सजा दी जाती थी, ऐसे अध्यापक की लोक समाज में  प्रखर आलोचना होती थी और उन्हें घ्रणा की द्रष्टि से देखा जाता था. महाभारत काल में भी शिष्यों की पिटाई पर मृत्यु दंड के प्रावधान का उल्लेख है. लेकिन हमारे यहाँ पहले दिन की सुरुआत समझावन लाल से ही होती है. हर कक्ष में अध्यापक वजह-बेवजह बच्चों के स्वाभिमान की ऐसी तैसी करते मिल जायेंगे. घर परिवार से सम्बंधित झुंझलाहट भी अक्सर यहीं निकलती है. समझ गयी तेल बेचने, बच्चों ने पाठ नहीं याद किया या गुरु जी अनुत्तरित हैं पिटेंगे क्षात्र. हर समस्या का समाधान डंडे से होता है. जो जितना गरीब है उतना ज्यादा पिटेगा. घर में भी हालत विपरीत नहीं होते, बड़े नुकसान करें या बच्चे आफत बच्चों के सर फूटनी है.  बच्चों के आत्म सम्मान (watch Brothers Karamazov) को  मिट्टी में  मिलाने का काम परिजन बड़ी जिम्मेदारी से निभाते हैं. अपने पराये का ज्ञान सर्वप्रथम बच्चों को माँ ही देती है.  

नतीजतन ५वीं गुजरते गुजरते अधिकांश बच्चों का शिक्षा से लगाव मर चुका होता है. आगे बढ़ना भी चाहें तो उनकी नींव में राख और गौरव में भूसा भरा होता है. घर में मूलभूत सुविधाओं का अभाव आगे चलकर धन के प्रति अप्रतिम लगाव और मानवीय असहिष्णुता की पहली सीढ़ी का निर्माण करता है, ये कहना आप को भी यहाँ असमसामयिक लगेगा.

मेरा उद्देश्य अध्यापकों के मुंह पर कालिख पोतना नहीं है..... लेकिन हमारी वर्तमान/आगामी पीढी और भारत के भविष्य का चेहरा झुलसा हुआ है. आशा की किरण सिर्फ और सिर्फ प्राथमिक विद्यालय के अद्यापक के हाथ में है.

Further additions in this post are expected.... Ram                       

Monday, October 24, 2011

अथ शोध यात्रा

जिस राष्ट्र की बाल्यावस्था की मूलभूत शिक्षा में ही ग्रहण लगा हो, शोध क्षात्रों की बात करना बेमानी है। थोडा ठगी करूंगा, इस वादे के साथ कि मूलभूत शिक्षा की बात अवश्य किसी दिन लिखूंगा, आज की बात कह देता हूँ। भारतवर्ष में, कुछ अपवादों को छोड़कर, शोध कार्य करने की योग्यता पूरे १७+(परास्नातक) वर्षों की परंपरागत शिक्षा के उपरान्त ही पूरी होती है। इस बीच अनगिनत छोटी बड़ी राज्य/राष्ट्र स्तरीय प्रतिस्पर्धाओं से गाहे बगाहे होना होता है। उस पर तुर्रा ये कि अभी ये १७ वर्षों के अकल्पनीय समर्पण को हमारे ही नीति नियामक अपर्याप्त और विफल घोषित कर राष्ट्र स्तरीय प्रतिस्पर्धा आयोजित करते है। स्तर की बात करें तो आप समझ लीजिये कि शायद येही एक प्रतियोगिता जिसमे १० पदों के लिए १०००० आवेदन से कम आते होंगे। कारण स्वयं ही खुद को प्रतिष्ठित करेंगेकहना अतिशयोक्ति न होगा कि चपरासी के हर एक पद के लिए वेटिकन सिटी जैसा छोटा मोटा राष्ट्र शत प्रतिशत आवेदन करता है, जैसे कि किसी पोप का पद मिलने वाला हो

राष्ट्र में शिक्षा के स्तर को आंकने के लिए मेरा चार पक्तियों का पिछला पोस्ट पर्याप्त है. ये बताता है कि कम से कम १५ वर्षों की विद्यालय से प्राप्त शिक्षा और अनगिनत वर्षों के स्वयं श्रम का क्या हश्र होता है. इसलिए शोध कार्य प्रारंभ करने के लिए और उसकी गुणवत्ता की जरूरत को ध्यान में रखते हुए प्रतियोगिता एक तुच्छ किन्तु टिकाऊ उपाय है. राष्ट्र के उच्च शोध संस्थान विश्व के स्तर पर कहाँ बैठते हैं के लिए लम्बी बहस चलायी जा सकती है किन्तु उनमे प्रवेश विश्व स्तरीय संस्थाओं में प्रवेश पाने से भी दुरूह विकल्प है इसमें कोई संदेह नहीं. कुल मिलाकर शोध की शुरुआत करने के लिए तैयार होते होते व्यक्ति की औसत आयु कम से कम +१७+(-)=२३-२४ वर्ष बैठती है. तमाम दुरूहताओं को ध्यान में रखा जाए तो ये संख्या बढ़ते देर नहीं लगती. ये वो उम्र है जब कि इंसान से परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदारियों और उनकी समझ की आशा की जाती है या जानी चाहिएये वो उम्र भी है जब कि इंसान अपने सक्रिय जीवन का आधा पड़ाव पार कर चुका होता है. यहाँ से प्रारंभ यात्रा कहाँ जानी है ये पता लगते लगते (PhD की उपाधि मिलते मिलते) - वर्ष का समय लगना पुष्ट है, और तब तक चेहरा निश्तेज, चश्मे का नंबर -५, त्वचा की चमक फीकी, सर के आधे बाल नदारद, शेष में से आधे सफ़ेद, और संवेदनशीलता नगण्य हो चुकी होगी, जोश में इसका ख़याल भी नहीं रहताक्युकि हमारे जिस अंधे समाज में ब्रम्हचारी और कथित साधू पूज्यनीय है उसी तरह शिक्षित समाज में वैज्ञानिक सम्माननीय है। और जैसे ही कोई व्यक्ति साधू होने का निर्णय लेता है तो लोग उत्सव मानते हैं, ताकि ये भावी साधू दुबारा सामान्य होने के बारे में सोच भी सके, वैसे ही शोध छात्र की चहुँ ओर प्रशंशा होती है और सारी व्यवस्था होती है कि शोध जीविकोपार्जन का मनपसंद व्यक्तिगत निर्णय होकर बलिदान हो जाए।

होता कुछ यु है कि जो क्षात्र अपने समकक्षों में अव्वल होता है, जिसे सीखने जानने की ललक होती है वो जाता है शोध के लिए और शेष पेशेवर विषय चुनकर शिक्षा और अनावश्यक मानसिक परिश्रम से मुक्ति पाते हैंकुछ ही दिन बीतते है, शोध क्षात्र के पास उसके मित्र का सुबह सुबह फ़ोन आता है कि उसका किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में चयन हो गया है और विभिन्न किस्म के लाभों सहित उसका वेतन लाखों की सीमा छू रहा हैनिवास के लिए सुसज्जित मकान और माता पिता की चिकित्सीय जरूरतों के साथ तमाम तरह की सुविधायें, राष्ट्र की उन्नति का प्रतीक और आज की आवश्यकता, भी शामिल हैंयह मित्र अपने भविष्य की योजनाओं में कुछ वर्षों में एक आलीशान घर बनाना और ऐसी ही कुछ चीजें गिनाता है (चार पहिया वाहन चंद दिनों में उसकी होने वाली धर्मपत्नी लेकर आएगी)। इस ख़ुशी के पल में इत्तेफाकन वो पूछ बैठता है "और तुम्हारा क्या चल रहा है?" थोड़ी देर की ख़ामोशी ही सब कुछ बयां करती प्रतीत होती हैस्वाभाविक प्रश्नों के उत्तर शब्दों में कुछ इस तरह पिरो सकते हैं(कृपया धीरे पढ़े और प्रश्न स्वयं निर्मित करें)। यार, अभी तो कुछ खास नहींलेकिन इस साल शायद एक पेपर जायेगा; फेलोशिप ठीक ठाक है, काम चल जाता है, तुम तो जानते हो मुझे पैसे से ख़ास लगाव नहीं है; हाँ अभी तीन(कुछ गायब) साल और लगेगा उसके बाद पोस्ट डोक्टोरेट के लिए जाना होगा; नहीं, देखता हु अगर बाहर मिल गया तो अच्छा वरना यहीं करूंगा; कुछ चार पांच में हो जायेगा; भाई, वो तो सिविल सर्विस(यकीन नहीं) की तैयारी कर रहा है, ऍम बी करना चाहता था, मेरे पास पैसे नहीं थे फीस के; घर पर मां और छोटी बहन है; तुमको शायद बताया नहीं पिता जी तो पिछले साल ही....; मालूम नहीं कैसे, शायद बीमार थेनहीं घर तो जाना नहीं हो पाता, काम लगा रहता है; मां आई थी पिछले महीने डॉक्टर को दिखाना था; ना यार, अभी तो छोटी बहन की पहले करनी होगी वैसे भी कोई अभी तक मिली नहीं; देखा है लेकिन पैसे बहुत मांग रहे हैं; वो, वो तो गयी।

मित्र प्रगतिशील है इसलिए शोध क्षात्र से सच्ची सहानुभूतिपूर्ण भारी गले से अगले महीने के मुहूर्त में शादी का निमंत्रण दे फ़ोन रख देता हैउसे मालूम है कि चाह कर भी ये ५०० किमी दूर उसकी शादी में शामिल होने नहीं आने वाला। सुबह के सात बज चुके हैं, शोध क्षात्र ऊंघते हुए कंप्यूटर पर "job submit" कर दहेज़ (कु)प्रथा को कोसता हुआ बिस्तर का रुख करता है।

जारी...




Saturday, October 8, 2011

८४ हजार जीरो, वाह रे युवा....

इलाहाबाद : कर्मचारी चयन आयोग द्वारा आयोजित संयुक्त स्नातक स्तर (सीजीएल) की टियर-2 परीक्षा के सही उत्तर 11 अक्टूबर तक जारी होंगे। कर्मचारी चयन आयोग के अध्यक्ष ने यह जानकारी वेबसाइट पर दी है। अभ्यर्थियों द्वारा भरी गई ओएमआर शीट भी एसएससी.एनआइसी.इन पर 11 तक अपलोड कर दी जाएगी। यह परीक्षा 3 व 4 सितंबर को हुई थी। ओएमआर शीट और सही उत्तर के मिलान से अभ्यर्थी अपने प्राप्तांक को जान सकेंगे। यही नहीं इस परीक्षा में जिन 84 हजार अभ्यर्थियों को शून्य अंक मिले थे वे भी अपनी गलती को देख सकेंगे।

Monday, September 26, 2011

रेलम पेल से त्रस्त? केरल से सीखो

कोच्चि। देश की आबादी नियंत्रित करने के लिए क्या यह उपाय सही होगा? केरल में यदि किसी पति ने पत्नी को तीसरे बच्चे के लिए गर्भवती किया, तो उसे जेल की हवा खाना पड़ सकती है! राज्य सरकार इसे लागू करेगी या नहीं, यह बाद में तय होगा, लेकिन केरल महिला संहिता विधेयक 2011 में कुछ ऐसा ही प्रावधान किया गया है। इसे न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर की अध्यक्षता वाली 12 सदस्यीय कमेटी ने मुख्यमंत्री को सौंपा है।

कमिशन ऑन राइट्स एंड वेलफेयर ऑफ वुमेन एंड चिल्ड्रन के मुताबिक तीसरे बच्चे की संभावना के तहत पिता पर न्यूनतम दस हजार रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा या तीन महीने की साधारण जेल होगी। साथ ही सरकारी सुविधाएं और फायदे अभिभावकों को नहीं दिए जाएंगे। हालांकि बच्चों को किसी प्रकार के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा। आयोग ने कहा है कि नया प्रस्ताव बच्चों के बेहतर लालन-पालन के लिए प्रभावी होगा।

आयोग ने 19 साल की उम्र में शादी करने और बीस वर्ष की उम्र में मां बनने वाली महिलाओं को प्रोत्साहन राशि के तौर पर पांच हजार रुपए देने का भी सुझाव दिया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकारी और निजी अस्पतालों में सुरक्षित गर्भपात मुफ्त किया जाना चाहिए।

आयोग ने कहा है कि किसी को भी धर्म या राजनीति की आड़ में 'जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम' में छूट नहीं दी गई है। धर्म, क्षेत्र, जाति या किसी अन्य आधार पर किसी व्यक्ति को ज्यादा बच्चे रखने का अधिकार नहीं है। आयोग का गठन राज्य सरकार द्वारा सात अगस्त 2010 को किया गया था। जिसमें महिलाओं और बच्चों के अधिकार और दायित्व संहिता तैयार करने को कहा गया था।

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थोड़ी समझ परिणाम बड़ा, भारत सरकार के काम की चीज नहीं, वो अभी स्पेक्ट्रम बाँट रही और खेल दिखा रही है। राम को जेल की हवा और रावण को मलाई(जनता का खून) खिला रही है।

Friday, September 23, 2011

तराजू

आज पता नहीं क्यूँ दिल में अजीब सी हलचल हो रही थीकोई सुख दुःख की बात थी, कोई ईर्ष्या या आत्मविभोर करने वाली भी बात थीऐसा कोई काम भी किया था कि भयभीत होतीलेकिन घबराहट थी कि जाने का नाम ही लेती थीहर पल बस एक ही बात सूझती थी, उससे बात करनी चाहिएलेकिन रात काफी बीत चुकी थी और देर शाम ही तो बात हुई थी इसलिए फ़ोन कर उसकी नींद में दखल देना मुनासिब समझासारी रात लम्बे डरावने सपने सी बीती, भोर होते रहा गया तो उंगलियाँ स्वयं ही फ़ोन पर चलने लगींपूरी घंटी चली गयी फ़ोन उठाऐसा बिरले ही होता था, तब जब वो किसी छोटे मोटे काम के लिए फ़ोन से दूर होज्यादा देर इन्तजार कर सकी और दुबारा डायल किया, तीसरी बार, ... दसवीं बार, कुछ १० मिनट बीत गए फ़ोन उठाअब दिल की धड़कन तेज हो चली, अन्दर की हलचल उँगलियों के कम्पन से महसूस हो रही थीकल तक तो उसका स्वास्थ्य ठीक था, रात में बहार जाने का कोई औचित्य था और होता भी तो फ़ोन लेकर तो जाताअँधेरा अभी छंटा था इसलिए उसके घर जाने का विचार भी अन्दर ही कुढ़ता रहाफिर से फ़ोन ..... कुछ एक घंटे से ज्यादा का समय इसी क्रम में बीता, और कुछ करने का विकल्प सूझता थाअचानक फ़ोन उठाया गयाआवाज उसी की थी और सामान्य से कुछ विशेष अंतर था आवाज मेंबस एक आश्चर्य बोधक एहसास था की इतनी देर से मैं उसे फ़ोन कर रही थी जबकि सामान्यतः मैं एक बार ही फ़ोन करती थी, उठे या नहींथोडा सामान्य हुई, अनहोनी के बादल छंटे तो गुफ्तगू पर पहुचीवार्तालाप के दौरान उसने स्वीकार किया कि वो रात किसी और के साथ था, और फ़ोन जान बूझकर कमरे पर छोड़ दिया था ताकि मेरा फ़ोन आने की जानकारी उस तीसरे को होदिल घायल था और मैं खामोशमेरी स्वार्थपरता उसकी स्वतंत्रता में बाधा बने इसलिए उसे भरोसा दिलाया कि उसका हर निर्णय मुझे स्वीकार, और उसकी किसी भी वैचारिक या सामजिक पहल पर निर्विरोध समर्थन हैदिन बीतने लगे और मुझे बताया गया कि उपरोक्त घटना विकल्पों की खोज में उठाया गया एक नादान कदम थी और उसे उसके लिए पछतावा है। उसके जीवन में खुद का महत्व जान गौरान्वित महसूस करने लगी। समय और उसके साथ चलते चलते मुझे ये विश्लेषण करने की सुध भी रही कि उसकी ये नादानी वाकई नासमझ कदम था या उस विकल्प रूपी तराजू के भारी पलड़े पर मैं थीधीरे धीरे ये घटना अनलिखा इतिहास हो गयी और हम दोनों ही वर्तमान को जीने लगे

इतिहास ने खुद को फिर से दोहराया, इस बार मेरा पलड़ा हल्का था.......

Tuesday, August 30, 2011

भ्रष्टाचार, अन्ना, समाज, नेता और राष्ट्र (भाग 2)

भारत का शायद ही कोई नागरिक आज ऐसा होगा जिसे अन्ना, उनके भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और इस अभियान के समर्थन में उनके जारी अनशन से वाकिफ हो जो विदेशी भी नावाकिफ होंगे उन्हें असंवेदनशील कहा जा सकता है शायद ही दुनिया का कोई कोना हो जहाँ इस अभियान की आवाज़ पहुच रही हो ये अभियान राष्ट्रीय परिप्रेछ्य में है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय बातों को ये सिर्फ ये कहकर ख़त्म करना होगा कि "गांधी के स्वतंत्रता आन्दोलन की तरह, अहिंसक होने के कारण, ये भी एक अनूठा आन्दोलन है राष्ट्र और इससे बाहर के हिंसक और उन्मादी आंदोलनों के लिए एक पाठ भी"

पिछले अंक का समापन मैंने इस बात के साथ किया था कि ऐसे लोकपाल बिल आते रहेंगे, व्यर्थ होंगे और जाते रहेंगे। हमें अपने अन्दर झांकना होगा और समाज को बेहतर मूल्यों से अभिमंत्रित करना होगा वैसे कोई भी नियम क़ानून इसलिए व्यर्थ नहीं होता कि उसमे खामियां हैं, बल्कि इसलिए होता है कि उन खामियों का इस्तेमाल हम रचनात्मक कार्यों के लिए कर हानिकारक कार्यों और स्वार्थ्य पूर्ति के लिए करते हैं और कुछ हद तक इसी का नाम है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचारी मतलब भ्रष्ट है आचरण जिसका। सिर्फ किसी काम के लिए या मूलभूत सुविधाओं/अधिकारों से वंचित कर उसकी पूर्ती के लिए किसी से धन ऐंठने भर को भ्रष्टाचार ठहराना अंधे का हाथी ही है जिस आचरण से समाज के विचारों, विकल्पों और उसके सुगठन पर दूषित असर पड़ता हो, जिस कर्म से कोई समाज दुर्बुद्धि हो कुमार्ग की ओर चल दे, जिस कर्म से राष्ट्र हानि और जीवन शैली का पतन हो, जिस कर्म से समाज का अकारण विघटन होने लगे उसे भी भ्रष्टाचार ही कहा जा सकता है

तयशुदा तिथि के अनुसार अन्ना का अनशन शुरू हुआ, प्रशाशन को जो मूर्खताएं करनी थीं कीं। बंदी बनाने से लेकर सारी शर्तें स्वीकार करने तक सबकुछ अन्ना हजारे के अनुरूप हुआ और कुछ भी सरकार के लिए बेहतर न हो सका। सत्ता पक्ष ने अंतिम सांस तक आन्दोलन को न तो सहजता से स्वीकार किया और न ही उसकी गंभीरता को समझने का प्रयास किया। विपक्षी दलों ने भी विषय की जितनी उपेक्षा की जा सकती थी की। किसी भी जिम्मेदार राजनेता को वो बात समझ न आ सकी जो सामान्य अशिक्षित नागरिक को भी आसानी से समझ आ सकती थी। बड़प्पन(लाचारी) विपक्षी दलों का, कि कुछ निरंकुश क्षेत्रीय दलों को छोड़ कर किसी दल ने अपने विरोधियों से निबटने के कांग्रेसी/सरकारी तरीके को नकारा नहीं तो सहयोग भी नहीं दिया। कुछ दिनों पहले की अन्ना और अहंकारी राजनेताओं के बीच की लड़ाई बढ़कर आमआदमी और सरकार के बीच तक पहुँच गयी। "परिवर्तन प्रकृति का नियम है" को भूलकर "संविधान और संसद की सर्वोच्चता और उसकी रक्षा" जैसी बातों की राजनीति सदा की भांति चलती रही.

संविधान एक समाज को सुचारू रूप से चलने का साधन न होकर जैसे सर्वशक्तिमान ईश्वर के वचन हों। समाज और देशकाल में परिवर्तन होगा तो संविधान में परिवर्तन करना ही पड़ेगा। ६० साल पहले लिखा गया संविधान उस समय के समाज के परिद्रश्य में बनाया गया था, वो उस समय के भविष्य की परिकल्पना थी। आज के परिद्रश्य में हम पर परिपक्व चिंतन की मजबूरी और जिम्मेदारी है, ताकि हम बेहतर कल की परिकल्पना कर सकें। तकनीकी से लेकर मानव व्यवहार तक कोई चीज ६० वर्ष पूर्व, जैसी आज है, परिकल्पित भी न रही होगी।

रही संसद की बात तो इस आन्दोलन ने सिखा दिया है कि जहाँ क्षण भर में चेहरे बदलते हों लोग ५ वर्षों में सिर्फ एक बार, वो भी वैकल्पिक, निर्णय नहीं लेंगे बल्कि समयानुरूप जब आवश्यक होगा और उसे अपने चयनित प्रतिनिधि को अपने वैचारिक सुझाव देने होंगे तो देगा। बल्कि उस निर्णय में संशोधन भी कर सकेगा तो और भी बेहतर होगा। संसद को उस सुझाव को सुनना समझना ही नहीं उस पर नीतिसंगत अमल भी करना होगा।

हम सब जानते हैं कि राजनेताओं की मनमानी न चली, अन्ना के अनशन को वैश्विक समर्थन और सहयोग मिला। अन्ना हजारे, जिन पर ६ महीने पहले सिर्फ बुद्धिजीवी वर्ग विचार व्यक्त किया करता था, लोगो के दिल की धड़कन बन गए। आन्दोलन की लोगो के दिलों पर पैठ के लिए ये उदाहरण ही काफी होगा कि जिस देश में क्रिकेट एक धर्म है उसकी शायद ही इन दिनों कोई चर्चा हुई हो और बहुतों को तो ये भी नहीं मालूम होगा कि भारतीय टीम इंग्लैंड की टीम से ०-४ से टेस्ट मैच हारी है। समाज के हर वर्ग में हलचल थी ये बताना व्यर्थ है। १२ दिन के अनशन ने हर वो विचार बदला जो दकियानूस था और तर्कसंगत न था।

इस सारे घटनाक्रम ने तीन बातें स्पष्ट कर दीं एक "हमारा वर्तमान प्रधानमन्त्री बेहद लाचार, मजबूर और गौरवहीन है।" दूसरा "हमारा कथित भविष्य का प्रधानमंत्री गैरजिम्मेदार, विवेकशून्य और अहंकारी है." तीसरा "प्रधानमंत्री के अधिकाँश सहयोगी निरंकुश, असामाजिक और कथित रूप से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं/थे।" एक बात जो मुझे दिखी वो ये कि हमारे समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को प्रस्तुत करने के लिए कुछ पत्रकार और कुछ वकील ही हैं, ये परिद्रश्य बदलना होगा.

खैर घूम फिर कर बिल पारित हुआ और संसद ने छोटा ही सही लेकिन सकारात्मक और वर्तमान मांग को ध्यान में रखकर कदम उठाया। संसद की कार्यवाही देखकर कोई भी साधारण मनोविज्ञानी कह सकता था कि, अनुपस्थित लोगो की तो भूलो, उपस्थित माननीय सदस्यों में शायद ही कोई उस बहस में उत्साह से हिस्सा ले रहा हो। बहस तो बहाना था लोग गंभीर बिन्दुओं पर बात न कर शरद यादव के बडबोलेपन और बेकार के भाषण पर तालियाँ पीट और अट्ठाहस लगा रहे थे। सच पूछो तो किसी बिंदु के समर्थन का मतलब बहस की व्यर्थता थी और विरोध का किसी में साहस न था। बेहतर सुझाव तो राहुल गाँधी की भांति सदन से नदारद थे।

अन्ना
और उनकी टीम को इस अभियान में सफलता तो मिली लेकिन जन सैलाब घटते ही टीम के सदस्यों का दमन शुरू हो गयादेश के नागरिक इस बात पे खुश हैं कि अब देश भ्रष्टाचार मुक्त हो जायेगा। कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि जन लोकपाल बिल जादू की छड़ी नहीं है जो भ्रष्टाचार को मिटा दे। ये बात शायद हर भारतीय जानता है, लेकिन वो ये भी जानता है कि जादू की छड़ी के इन्तजार में हाथ में हाथ रखकर कर बैठे रहना मूर्खता है। पहल तो करनी ही होगी। वैसे भी जादू की छड़ी आने न पाए इसके लिए ही हमारी सभ्यता ने हजारों वर्षों का अविश्वसनीय क्रमगत विकास किया है।

देश के सामान्य समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को अगले अंक में चिन्हित करेंगे.....

Tuesday, August 2, 2011

मेहमान

दिन भर की चहल पहल से फारिग हो थोडा आराम करने का दिल चाहा तो मेहमान कक्ष में ही ऊंघने लगी। आज घर में एक खास मेहमान आया था, मेरी थकान प्रमुखतः इस मेहमान के इन्तजार में रात भर न सोने के कारण थी, बाकी कुछ काम और कुछ इस ख़ास मेहमान की खातिरदारी। मेहमान की उपस्थिति भी मेरी नींद को रोक न सकी और मैं ढेर हो गयी। झपकी ली ही थी कि दोनों गालो में एक के बाद एक मखमली सा एहसास छू गया। मस्तिष्क थोड़ी देर के लिए सक्रिय हुआ, उस अलबेले ने अमर प्रेम की पहली निशानी सुपुर्द कर दी थी, वो दिल जो खामोस हो मेरी जीवन रेखा को लम्बा कर रहा था अचानक जोरों से छटपटाने लगा। किसी दर्द से बेबस नहीं, उस अनोखे समर्पण के एहसास और उमंग को सम्हाल न पा रहा था, बस। नींद हिरनी की तरह कुलांचे भरती हुई कोसों दूर निकल गयी थी। मैं समझ न पा रही थी की इस एहसान का शुक्रिया कैसे अदा करूँ। आज जैसे लग रहा था जीवन का मकसद पूरा हो गया। आज ऊपर वाले ने वो दे दिया जिसकी स्वप्न में भी कल्पना न की थी। आँखें मूंदे थोड़ी देर लेटी रही, पर रहा न गया, आँख खोली तो पाया की मेहमान की आँखों में अनोखी शरारत और मेरे चेहरे पे जन्नत सा सुकून हमारे अमर प्रेम की दास्ताँ लिखने को कातर हुआ जा रहा है।

थोड़ी देर पहले ही तो हम लोग गंगा किनारे शाम की सैर को निकले थे। वो भी चुप थे और मैं भी खामोश थी। अन्दर से आवाज़ तो निकलती थी लेकिन गले से बोल ना फूटते थे। उनका हाल मुझसे जुदा न था। कितनी सारी बातें, कितने अरमान हिलोरें मार रहे थे लेकिन कुछ भी बाहर तो न आता था। जी करता था हांथो में उसका चेहरा ले आँखों में आँखें डाल इस पावन गंगा में उतर जाऊं। अजीब ख़याल था। किनारे पहुचे तो वो गंगा की ओर और मैं विपरीत दिशा में मुह कर के बैठे थे। प्रकृति की छटा निराली थी ये एहसास तो बहुत देर से हुआ, मुझे तो बस ये ही ख़याल था की उसके हाथ की दूरी मेरे हाथ से २ सेमी से ज्यादा न रही होगी। कितनी मन्नतें मना डालीं एक स्पर्श की चाह में, माथे पर पसीने की बूंदे छलक आयीं लेकिन ये दूरी तय न हो रही थी। अचानक वो मेरी गोद में सर रख उगते हुए चाँद की सराहना करने लगा। मेरा दिल उछल कर गंगा में छलांग लगा बैठा। थोड़ी देर बाद जब उखड़ी सांसें सामान्य हुईं तो मुझ पर एक मीठी ईर्ष्या का लेप चढ़ गया। मैं इतने सपने संजोने लगी जितने आज तक देखे भी न थे। प्राण पुकारते थे जब भी निकलें बस इसी अवस्था में। घंटों बीत गए होंगे, उसके सर का भार जैसे फूल से भी हल्का था। सैर ख़त्म कर घर वापस जाने की बात निकली तो जैसे शरीर में जान ही न रह गयी। मेरी प्राणप्रिय गिलहरी हमेशा की भांति मेरी हर हलचल की गवाह थी लेकिन आज ये पहला मौका था जब मैं अपनी भावनाएं उसके साथ साझा नहीं कर पा रही थी।

राम

Thursday, July 21, 2011

देर

पहली बार अपने माता-पिता को इतना ज्यादा घबडाया हुआ तब देखा था जब उस शाम मैं बदहवास सी अचानक, बिना खबर किये शहर से घर पहुची थीमेरी रक्तहीन सूरत पर गड्ढों से झांकती तेजहीन आँखे देख, काले साए जैसा सन्नाटा घर में पैर पसारने लगा थापूरे परिवार का दिल किसी अनहोनी की आशंका से तड़प कर खून के आंसू बहा रहा थामेरे मुह से शब्द नहीं फूट रहे थे, मुझे खुद विश्वास हो रहा था कि मैं शहर से घर कैसे पहुचीमा को पछाड़े खाते देखा गया तो मैं धीरे से बुदबुदाई "१५ दिन से अन्न ग्रहण नहीं किया, और कोई खास बात नहीं"। कुछ शंकाएं विदा हुईं तो नयी शंकाओं ने घर कर डाला। घर में अजीब सी बेचैनी और डर मुझसे चिल्ला चिल्ला कर पूछ रहा था "आखिर हुआ क्या है?"

खाना त्याग प्राण देने का प्रण होता तो घर ही जाती। थोडा बहुत खाना पेट में गया तो कुछ साहस बंधा, रात में सभी लोगो को इकठ्ठा कर एक ही सांस में कह बैठी, "मुझे गैर जाति के लड़के से असीम प्रेम है, और मैं उसी के साथ शादी करना चाहती हूँअन्यथा आजीवन अविवाहित ही रहना पसंद करुँगीमैं अपना सर्वस्व उसी को न्योछावर करती हूँ।" मैंने दहेज़ प्रथा और समाज की अन्य कुरीतियों के प्रति अपने विचार रखे, जिनका मेरे माता-पिता स्वयं निष्ठां से आजीवन पालन करते आये थे। मुझे याद आता है कि मेरे पिता ने एक बार स्वयं कई महीनो तक मुझसे बात नहीं की थी क्युकी मैंने गाँव की उस लड़की से मुलाकात कर ली थी जिसके भाई ने प्रेम विवाह किया था

अविश्वसनीय तरीके से बुजुर्गों ने रूढ़ियों की मजबूत दीवार को तोड़ने में क्षण भर की देरी कीजीवन भर के अनुभव से उन्होंने जो विश्वास और सिद्धांत निर्मित किये थे, मेरे परिकल्पित सुख के लिए रेत के महल से ढह गए। और उनकी जगह ऊंचे और परिपक्व ख्यालों की स्थापना हुई। रात काफी बीत चुकी थी सो आगे का कार्यक्रम सुबह तक के लिए स्थगित हुआसुबह होते ही लोग, अपनी वार्गिक श्रेष्ठता को ताक पर रख, मेरे रिश्ते की बात करने निकल पड़े

दो घंटे भी बीते होंगे मुझे खबर मिली कि "जो मेरे नाम का हर घडी दम भरता था, जो मेरे बिना जीने को स्वप्न में भी स्वीकार न करता था, जो मेरे समाज से भिन्न ख्यालों का असीम आदर करता था, जो मुझे अपना खुदा कहता था, उसे पाने में मैंने देर कर दी।" पीछे मुड कर देखा तो पाया कि अपने जिन सिद्धांतो को मैं शहर में तिलांजलि दे कर गाँव आई थी वो मेरे पीछे गाँवपहुचे हैं और मेरे परिवार वालों के सिद्धांतों के साथ जख्मी पड़े कराह रहे हैं, और मेरा भविष्य असाध्य रोग से अभिशप्त हो अंतिम सांसें ले रहा है। जिस ईश्वर पर अटूट विश्वास था वो कायरों की माफिक मुझे मेरी ही बदहाली पर आंसू बहाता छोड़ नदारद हो चुका है। जीवन के हर पहलू में तर्क खोजने वाली मैं आज असंगत हो सर्वनाश के चौराहे पर बिल्कुल असहाय सी खडी थी। और मेरा भूत मेरी दुर्दशा पर अट्ठाहास लगा रहा था।

राम

Tuesday, June 21, 2011

हम बलात्कारी और हत्यारे भारतीय (विशेषतः उत्तर प्रदेश)

July 11, okay I give up. Can't keep track. You are omnipresent. Doing very hard job. I appreciate you all.


"फरुक्खाबाद - फिरोजाबाद - गोंडा - कानपुर - सीतापुर - फतेहपुर - एटा - मुजफ्फरनगर - मऊ - बाराबंकी - संत कबीर नगर और अब गाज़ियाबाद"

चन्द दिनों में बहुत नाम कमाया। हम पहले बलात्कार करते हैं फिर हत्या।
हम सामान्य बलात्कारी नहीं, मासूम और वृद्धों को भी नहीं बख्शते।
क्युकी हम जानते हैं कि वो विरोध नहीं कर पायेंगे।
शायद ही कोई दिन जाता हो जब हम ये कमाल न करते हों।
रावण - कंस - तैमूर शर्मा जाते होंगे हमारी काबलियत देख कर।
हमें संस्कार में बलात्कार और हत्या करना ही सिखाया गया है।
हमें शासन, समाज और परिवार का भय नहीं क्युकी येही हमारी रक्षा करते और हमें पालते हैं।
हर हिन्दुस्तानी को हम पर गर्व करना चाहिए और दूसरे राष्ट्रों को सीख लेनी चाहिए।


मैं दिल्ली हूँ
इस साल (30 जून तक) दुष्कर्म के मामले
दुष्कर्म- 258
आरोपी- 96.25 प्रतिशत मामलों में आरोपी पीड़ित के परिचित थे
3.75 प्रतिशत मामलों में आरोपी अनजान लोग थे

बंगाल का हाल(2012)
-4 फरवरी : कोलकाता के अलीमुद्दीन स्ट्रीट इलाके में 11 वर्षीया किशोरी के साथ दुष्कर्म
-5 फरवरी: कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में चलती कार में महिला के साथ दुष्कर्म
-23 फरवरी : दक्षिण 24 परगना जिले के फलता में 7वीं की छात्रा के साथ सामूहिक दुष्कर्म
- 24 फरवरी : दक्षिणेश्वर के पास विवेकानंद सेतु के समीप महिला से दुष्कर्म, अब तक कोई गिरफ्तारी नहीं
-25 फरवरी : वर्धमान जिले के कटवा में ट्रेन में डकैती में बाधा डालने पर महिला से दुष्कर्म।



शाबाश इंडिया

Friday, June 17, 2011

तु ही रब है

बेजुबाँ लफ्जों को यादें सताती रही
आँखों से रात भर मैं गुनगुनाती रही,
दिल को छूकर महक तेरी जाती रही
नदी अश्कों की बदन से बहाती रही,
शिकायत क्या करती पवन से तेरि मैं
अपना दामन शूलों से उलझाती रही,
धूल चरणो की तेरी पा मस्तक मलूँ
तु खुदा हो मेरा ये मन्नत मनाती रही,
आता न देखा क़यामत का दिन गर
तेरे ग़म से समय को मैं गलाती रही।

राम

Thursday, June 16, 2011

बंधन

काम करते करते ऊब जाने पर या जब मन उदास होता है तो खिड़की से झांकते हुए बगीचे में चली आती हूँआते ही देखती हु सारा नजारा जैसा सालों पहले था वैसा ही हैबगीचे के पेड़ तो पतझड़ मानते हैं बसंत, तो पौधों पर लगे फूल मुरझाते हैं ही उनमे नए फूल ही आते हैं तो कोई नया व्यक्ति आता है ही कोई आया हुआ जाता हैपेड़ों से घिरा एक छोटा सा मैदान है जिसमे अजीब स्थिति में, एक दूसरे से पीठ किये हुए, दो बेंच आपस में फैसला रखे हुए हैंमेरे ख्याल से वो किसी काल्पनिक बल से बंधे हुए हैंउनमे से एक बेंच पर एक अधेड़ व्यक्ति हमेशा की तरह खोया हुआ सा बैठा हैजिसे मेरे उस बाग़ में होने की खबर नहीं है और ही शायद दूसरी बेंच के पास जमीन पर बैठी उस किशोर लड़की की अक्खड़ हंसी की, जो पास की बेंच में बैठी अपनी उम्रदराज होती माँ के साथ मीठी शरारत कर रही हैइस बेंच पर बैठी स्त्री की भी मानसिक स्थिति उन महाशय से मिलती जुलती हैशायद ये किशोरी जानती हो कि मैं वहां पर हूँक्यूंकि मुझे मालूम है कि इस किशोरी की उम्र १५ साल है और ये किशोरी कभी ठुमकते हुए छोटे छोटे कदमो से गिरते पड़ते दोनों बेंचों को किसी अद्रश्य धागे से बाँधा करती थी

Sunday, June 12, 2011

कल नहीं आया

आज बहुत देर से सोयी थी, शायद सुबह। नींद ने पूरी तरह आगोश में भी नहीं लिया था, तभी उसका फ़ोन आया। यूँ तो उसका फ़ोन रोज ही कई बार आता था। लेकिन मालूम नहीं उसकी मासूम बातों से कब मिठास चली गयी। समय के साथ बदलाव आते हैं, उसमे भी आये होंगे और मुझमे भी। लेकिन उसका फ़ोन आते ही अजीब सी बेचैनी होने लगती थी। ये बेचैनी मेरे पूर्वाग्रहों से संचालित थी या मेरी असफलता की कसक, कुछ कह नहीं सकती। मेरी फटकार और उसके स्वीकार का ये सिलसिला कब से जारी था बताना मुश्किल होगा।

आज भी मैंने हमेशा की तरह नीरसता से फ़ोन उठाया। इस बार की बात बहुत छोटी थी, उसने कुछ बुदबुदाया था जो मैं समझ न सकी। उसके बाद कुछ और फ़ोन आये जो उसके नहीं थे...

दीवार पर लगा कैलेंडर कहता है कि उपरोक्त घटना को घटे ७ साल बीत चुके हैं...
 http://www.youtube.com/watch?v=8PdDbB4I3-A&feature=related

Thursday, June 2, 2011

Visit to ICTP, Trieste, Italy

My first foreign visit happened to be to Italy. Well getting visa is not a formidable task if you are visiting ICTP (The Abdus Salam International Center for Theoretical Physics, Trieste). Sometimes you can get it even in one day, but beware to do so.


Thanks to the emergent science everything impossible until yesterday is becoming trivial. Of course, no direct international flight from Allahabad, so had to go to Delhi. Unfortunately my experience of this city have never been good. So I locked myself in a room of DAE Guest House at Neeti Bag, open for DAE employees. One funny thing to tell, they forbid you to bring anyone, specially of opposite sex. To catch international flights one need to go to Terminal-3.

The procedure one need to pass through for boarding is quite straight forward. So faced no problem at all. Turkish Airlines are relatively cheaper so ICTP arranged tickets in the same. It was a break journey via Istanbul but I had to stay there for only 6hrs so postponed the plan to visit the historic city.

It takes six and half hrs to reach Istanbul. It was summer of June and Istanbul was also quite hot. First time I came to see actual Turkish style. Being a corridor to Europe, quite like Europe with a hereditary of Middle Asia. Well six hrs passed in a single glance. Here I had to board to Venice. If I had not met Sadhna from TIFR, here, I could have claimed that one can reach ICTP from HRI not using more then 100 words, not sentences.

The ambiance in Venice was quite pleasant. Low temp, inferiorly populated, clean roads, everything automated, smartly dressed people etc i.e. all good an Indian could dream about. English being barely known to common men one might need to grasp face expression and hand movements to get needed amount of information. For a person going abroad first time let me inform you, in a connected flight you need to collect your luggage only once, at the destination.

Mestre railway station is roughly 15 Km from Venice airport and takes less then 30 minutes to reach there. Low population and plenty no of trains means borrowing a train ticket is not as hectic as in India, where one need to plan a journey before taking birth. Venice to Trieste is around 120 Km, takes couple of hrs. I booked a second class ticket alongside the window, though hardly 5-10 people in a coach. As soon as I boarded it started raining and I found the sight of countrysides along the rail track very captivating. Every edifice was surrounded by green agricultural land all around. Sun sat around 8:30PM. My mood was so much vernal that for almost half an hr I could not realize that I have reached Trieste. If it weren't the last station I was going to be in trouble for a while. Anyway, I had to come back to real world after looking at my wrist watch. I reached Galileo Guest House around 11PM and dinner time was over. Why I should unnecessarily describe the beauty of ICTP site if I have already attached an aerial view. 



First task, I could think of finding students from India attending the school. Well, I knew about Ila and Charan but there were 9 of us attending same activity and many more others. My roommate happened to be a nice German guy for different program. I enjoyed staying with him. 

One week has passed, and the major activity was to attend lectures and, sometimes, walking around. Didn't go anywhere except for shopping on Saturday, where I purchased nothing. Weather remains nice so no living difficulty, except tasteless vegetarian food. On Saturday and Sunday there was a trip arrangement to Slovenia and Italian-Alps mountain but could not go because I don't have the companion I wish to go with. Meanwhile I met with Goran Senjanovic and Borut Bajc(two well known physicists in my field) and surprisingly they remembered me. I had met them first at Chandigarh last year in SERC school.



Today, friday june 18, is the last day of the school and tomorrow I will have to start back to India. Yesterday there was social dinner and the best part of it was the band playing Latin music and songs. The dinner started at Leonardo(main) building around 7:00PM. Everybody was happily enjoying and dancing (Soon I will post at least one pic). My stay at ICTP passed extremely good, though I am going back with little less, academically.


Thanks to Riaz bhai for providing this pic.

Friday, May 6, 2011

Devoir to friendship

भविष्य की संभावनाओं की खोज में घर से बाहर निकले साल हो गए थे जब घर से पहली बार फ़ोन आया था हमेंबड़ी बात ये कि हमारे पास तो कोई फ़ोन था फिर भी हमसे संपर्क किया जा सकता थाहमारे दादा जी की मृत्यु का समाचार भी हमें कई दिनों बाद गाँव के मित्र से फ़ोन पर ही मिलामोबाइल का चलन नया था, इसलिए इसे रखना या तो अमीरों का या आवारों का शगल समझा जाता थाक्षात्रों के लिए तो मनाही सी थी और इसे रखना अपराध की श्रेणी में आता थाहाँ तो, ये पहला फ़ोन सिर्फ पहला फ़ोन नहीं हमारे आर्थिक स्रोत का अंतिम संस्कार था, जिस अर्थी में हमें ही मजबूरन आग देनी पड़ीअगले एक साल मित्रों के सहयोग से ही जिन्दगी कटी, जिस सहयोग का कर्ज हम आज तक उतार सके, जीवन भर उतार सकेंगे, और ही उतारना चाहते हैंउतारना नहीं चाहते इसके पीछे की धारणा ये है कि, मित्रों के हर छोटे बड़े सहयोग के साथ उनके लिए जो अपार आदर और अपनेपन का रंग चढ़ा हम पर हमें डर है इस कर्ज उतारने के खेल में उससे भी हाथ धो बैठें और आज जो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं वो महत्वहीन हो जायें हमारे सन्दर्भ में। मित्रता हमने पहले भी की थी परन्तु मित्रता की असीम महत्वता से परिचय बनारस वास के अंतरिम दिनों में ही हुआ।

हमें गर्व है कि ढेर सारे सुख दुःख से होते गुजरते हम आज भी अपने मित्रों के प्रति आदर से भरे हुए हैं। और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आजीवन वो हमारे इस जज्बे को जीवित रखे। बावजूद इसके कि शेष दुनिया हमारे प्रति क्या बर्ताव रखती है। तमाम गलत इस्तेमालों के बावजूद ईश्वर हमें औरों को सहयोग देने का साहस प्रदान करे, जैसा कि हमारे मित्रों ने हमारे लिए किया। आज भी जब विभिन्न तरह के झंझावत जीवन को जड़ से उखाड़ने की कोशिश करते हैं तो हमारे मित्रों का अप्रतिम स्नेह, प्रोत्साहन और मार्ग प्रदर्शन ही उबारता है और आगे बढ़ने का उत्साह प्रदान करता है। हम अपने मित्रों के हमारे साथ चले हर कदम के लिए अत्यंत आभारी हैं।


Thursday, May 5, 2011

My books



I wish, If I could read all these books, and several others of the same category, in my life time. Until few months back almost equivalent collection of philosophical, theological, spiritual and so.. books by legendary philosophers and mystics also contributed in the glory of my collection. But suddenly style of thinking and purpose of life changed and totally different perspective appeared. After that all those books looked me rubbish and confusing. Could not destroy those, as I didn't wanted to create dispute of destroying kind of "GOD's words". Gifting to others could be an attempt to decimation of their lives, so I moved those to HRI library.

Sunday, April 24, 2011

लोकपाल विधेयक, राजनीति और समाज

व्यापार का साम्यवादीकरण, धर्म का धर्मानिर्पेक्षिकरण, राजनीती का धर्मिकरण होना चाहिए, ये गाँधी जी का सपना था, है और वर्तमान परिद्रश्य में तो लगता है सपना ही रहेगा। ये सत्य होता नहीं दीखता। कभी कभी कुछ लोग उठ खड़े होते हैं और वर्तमान समाज का चेहरा बदलने लगता है। शायद इसलिए नहीं कि जीर्ण सड़े गले समाज में रहना एक सामान्य इंसान के लिए मुश्किल हो रहा है। एक बड़ा प्रतिनिधि वर्ग वो है जो साधारण जिन्दगी जीते हुए ऊब गया है और कुछ परिवर्तन चाहता है। ये वो वर्ग है जो गोधरा जैसी त्रासदी में हाथ में लोहे की छड़, और विस्फोटक ले के घूमता है और भिन्न धर्म के लोगो के गले काटता है, स्त्रियों की आबरू के साथ खेलता है। और साथ में अन्ना हजारे के भ्रस्टाचार विरोधी अनशन में जान हाथ में लेके बैठने से भी नहीं शर्माता। गाँधी और अन्ना जैसे लोग विस्मित हो कर रह जाते हैं कि इतने विशाल समर्थन की तो उन्हें अपेक्षा ही नहीं थी। गाँधी और अन्ना की लड़ाई में फर्क इतना है कि वो बाहर की गन्दगी घर से निकाल रहे थे और ये अन्दर की गंदगी साफ़ करना चाह रहे हैं। अनुपम समर्पण रहा होगा इस काम को करने के लिए। विभिन्न राजनेताओं के अनुसार संविधान के ढांचे में आमूल चूल परिवर्तन करने जैसा कदम। जिसको करने का सत्ताधारी पार्टी भी साहस नहीं कर पाती। लेकिन आज फिर अन्ना ने सिद्ध कर दिया कि हितोपयोगी कार्य करने के लिए बहुमत जुटाना नहीं पड़ता, समर्थन खुद चलकर आप के पास आता है।
मैं नहीं जानता कि ये लोकपाल विधेयक क्या है, और मेरे ख्याल से हमारे देश की ९०% जनता भी इसके क्लिष्ट प्रारूप से गुरुत्वाकर्षण के साधारण सिद्धांत की तरह अनभिज्ञ होगी। लेकिन समर्थन उन गूढ़ रहस्यों का नहीं बल्कि साधारण से सच्चे इंसान का और सीधी सी बात (भ्रष्टाचार मिटाओ) का है। ये है राजनीति की धार्मिकता।

सरकार झुकी और मसौदा तैयार करने के लिए समिति बनी। मीडिया से भी अभूतपूर्व सहयोग मिला। अच्छा, मीडिया से हर उस काम का सहयोग मिल जायेगा जिससे एक चटपटी खबर बन जाये। गाँधी जी के समय में मीडिया नहीं था वरना देश की आजादी के बाद वो खाली समय में राम धुन गा कर ढेर सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में विज्ञापन कर रहे होते।
देश को आजाद करते कराते बूढ़े हो गए थे तो चड्ढी बनियान का विज्ञापन तो भाता, लेकिन हाँ शक्ति बढ़ने वाली दवाओं के विज्ञापनों के ब्रांड अम्बेसडर होते। और इतनी जल्दी मारे भी जाते। तो जैसी भूमिका मीडिया ने अन्ना के समर्थन में निभाई वैसी उनके खिलाफ आरोप और प्रत्यारोपो के दौरान भी निभाई। हमारे देश के नेता आज उतने बड़े मूर्ख लगते जितने मीडिया के तोड़ मरोड़ कर बयां प्रस्तुत करने से लगने लगते हैं। हाँ बहुतों के कमीनेपन का अंदाजा किसी को नहीं।

जब हम अपने परिद्रश्य से देखते हैं तो हमारे देश के अधिकांश प्रतिनिधि समाज के सच्चे प्रतिनिधि हों ऐसा नहीं दीखते। लेकिन थोड़ी संगत या दैनिक समाचार पत्रों के बीच के पन्नो पर नजर डालने से स्पष्ट होता है कि ये ही इस भयावह समाज के सच्चे प्रतिनिधि हैं। जहाँ दिन प्रतिदिन के होते/बढ़ते अपराध से हम कुछ नहीं सीखते। अपराधी कौन? जवाब: मैं नहीं कोई और (या फिर "वो" जिसने अपराध किया ही नहीं) "मैं नहीं" ये इस जवाब का अहम् हिस्सा है। "कोई" कभी नजर में नहीं आता। वो गतिमान फलन है। "वो" भुगतते हैं। ये वो समाज है जहाँ नैतिक शिक्षा में सिखाया जाता है बड़ो का आदर करो और सिखाने वाला घर जाकर अपने पिता का सर खोल देता है। बाप सिखाता है दहेज़ लेना पाप है और अपने बेटे की शादी में आने वाली बहू के पिता को लूट लेता है और कम लूट पाने के गम में बहू की हत्या कर देता है। धर्मगुरु "यत्र नारी पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" सिखाता है और किसी श्रद्धालु स्त्री का चीरहरण करता है या सेक्स रैकेट चलता है। आप ईशा मसीह की शिक्षाएं पढ़ के निकलता है और पडोसी को प्रताड़ित करता है और उसकी उन्नति को अपना अपमान समझता है। अब आप ही बताओ ऐसे समाज को वर्तमान नेताओं से बेहतर मिलना चाहिए? उपरोक्त कोई चीज किसी नेता ने हमें नहीं सिखाई, लेकिन हमने तो उसके बचपन से ही उसे ट्रेनिंग दी है। अन्ना बेचारे ठहरे सिपाही उन्हें समाज की अच्छी संगत मिली। वरना वो भी दिग्विजय सिंह की तरह किसी अन्ना के लिए अनाप शनाप और नासमझ आरोप लगा रहे होते। या विभिन्न तरह के घोटाले कर किसी राष्ट्रीय पार्टी के मुख्य वक्ता होते। ऐसे नेताओं को पसंद करने वाला, उनसे लाभ लेने वालो के अलावा, कोई नहीं होता।
घूम फिर कर एक समिति बनी जिसे सत्ता और अन्ना एवं उनके अच्छे सहयोगियों द्वारा मान्यता प्राप्त हुई। और इस समिति से आम इंसान को कोई शिकायत नहीं। फिर अचानक वर्षों पहले की बातचीत का ब्यौरा निकलता है, कुछ सुलझे नेताओं की प्रशंशा का भूत दुम उठाता है और चारो ओर से अन्ना और समिति के लोगो को घेरने और बदनाम करने की फितरत निकल पड़ती है। ये समझना मुश्किल हो जाता है कि आरोपी इतने मूर्ख हैं या आम इंसान को इतना मूर्ख समझते हैं कि उनकी कही हुई बात अटल सत्य मालूम पड़े, शेष मिथ्या। जो CD आज शांतिभूषण का सर फोड़ रही है उसे मीडिया तक पहुचने के लिए इतना इन्तजार क्यूँ करना पड़ा? जब अन्ना ने आमरण अनशन शुरू किया था तब उनके दिमाग में ये बात न रही होगी कि जो बिल पास होगा उसमें अनुसूचित जाति के लोगो को घपले करने की सुविधा न होगी सिर्फ सामान्य वर्ग के लोग ही घोटाले कर सकेंगे। लेकिन अचानक कब्र से बाबा आंबेडकर का भूत टपकता है। और कहता है कि समिति में जब तक अनुसूचित जाति का कोई प्रतिनिधि नहीं होगा तब तक समिति बेबुनियाद है। ऊपर बैठे बाबा आंबेडकर देश के तमाम मूलभूत अनुसूचितों की बेबसी को अपने आंसुओं से उनकी झोपड़ी गीली कर बढ़ा रहे होंगे। और उनका नाम लेकर नोटों के बिस्तर तोड़ने वालों के सिरहाने खड़े होकर पंखा झलने का नाटक करते होंगे। संविधान समिति में दलितों के अनुभव को जिए इंसान की जरूरत थी और आंबेडकर से बेहतर इंसान न हो सकता था सो वे रहे समिति में।

इतिहास के पन्नो को पलटने पर पता चलेगा कि, जिस देश को आजाद कराने के लिए राष्ट्र भक्त क्रांतिकारियों और ईमानदार नेताओं से गली चौराहे पटे रहते थे आजादी मिलने के बाद गाँधी की तरह गौड़ हो गए। और जगह ली तमाम भ्रष्ट जमींदारों और व्यापारियों ने (हास्यपूर्ण विस्तार के लिए कृष्ण चंदर कृत "एक गधे की आत्मकथा" पढ़िए), जिनका एक मात्र उद्देश्य लूट था। नेहरु पटेल अंगरेजों से लड़ सके, देश विभाजन को भी झेल गए, लेकिन इन लुटेरों को न सम्हाल सके। आज हालात बदले नहीं हैं, आज तो आजादी की लडाई भी ये लुटेरे लड़ लेते हैं। जैसा कि अन्ना के अनशन सुरु होते ही दिखने लगा था। शुक्र है तमाम दिलेर समर्थकों का कि अभी तक इनकी जडें इस मंच पर न जम सकीं। लेकिन इनका भय हमेशा रहेगा। और हर घर में है ये दीमक, सो जिस दिन ये लोकपाल विधेयक को लगी, हमें फिर एक अन्ना कि जरूरत पड़ेगी।

इस तरह लोकपाल विधेयक आते रहेंगे, संस्थागत बीमारियों का वैकल्पिक उपचार होकर व्यर्थ होते रहेंगे, जब तक कि राष्ट्र का हर व्यक्ति जिम्मेदार और ईमानदार न होगा। संस्थाओं की बीमारी अन्ना मिटायेंगे, हम कोशिश करें अपने घर की बीमारी मिटाने की।


to be completed/modified...

Saturday, April 16, 2011

जग छूट चला रब रूठ चला,
जीवन की आस लुभाए न
तू दूर गया दिल टूट गया
ढाँढस अब कोई बंधाये न
कुछ लुटा दिया कुछ मिटा दिया,
कोई लेन देन राह जाये न
सब झूठ हुआ अब सांच कहाँ,
करतब दुनिया दिखलाये न
जग जीता चाहा खुद से हारा
क्या हुआ खुदा समझाए न
ऊपर वाले ने खेल रचे क्यूँ
जब नियम हमें बतलाये न
गिला हो क्या क्यू हो शिकवा
जब शर्म ही हमको आये न

ram

साम्यवचन

विरह हो गर जीवन में तो, प्रेम समझ में आये
खुले आँख घड़ियाँ रहते गर, दुखद स्वप्न डरपाए

साहस हो जग से लड़ने का, विपदा खड़ी रुलाये
अंकुश रक्खा गर भावोँ पर, कसमे वादे भरमायें

विश्वास अटल हो अपनो पर, तो दुश्मन लाग लगाये
जीवन जीना गर कला बने जो, मौत का खौफ सताए

स्वीकृत हो गर स्वयं की त्रुटि, अपनो से घृणा लुभाए
स्वच्छ रहे जो दिल अपना तो, कोई कभी छल पाए न।
ram

Monday, April 11, 2011

मासूम बचपन पर गिद्धों की निगाह (दैनिक जागरण)

कानपुर, प्रतिनिधि : बच्चों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। मासूम बचपन पर इन 'गिद्धों' ने इस तरह निगाह गड़ा रखी है कि बच्चे स्कूल से घर तक, कहीं भी महफूज नहीं हैं।

नगर में वहशीपन की शिकार दिव्या, नीलम, वंदना, आकांक्षा, किरन, प्रीती जैसी लड़कियों की फेहरिस्त तो लंबी होती जा रही है। इसके साथ ही मासूमों का भी बचपन शहर में खतरे से खाली नहीं रह गया है। सितंबर 2010 में स्कूल में दिव्या संग हुआ अमानवीय कृत्या लोग शायद ही भूल सकेंगे। मासूम संग स्कूल में हुए दुष्कर्म के बाद उसकी छोटी बहन में इतनी दहशत है कि उसने स्कूल से ही मुंह फेर लिया। नवंबर में बर्रा में एक ट्यूशन पढ़ाने वाले वहशी ने मानव अंग पढ़ाने के नाम पर मासूम को शिकार बनाने की कोशिश की। 2011 जनवरी में चकेरी के एक स्कूल में गेम्स टीचर ने प्रयोगात्मक परीक्षा के नाम पर स्कूल में छुंट्टी के दिन बुलाकर गलत काम किया। इसी दिन नौबस्ता में एक डांस टीचर ने कक्षा तीन के मासूम को कई दिनों तक हवस का शिकार बनाया। अप्रैल में कार सवार दरिंदों ने 12 साल की मासूम को अगवा कर अपनी हवस मिटाई। इसी तरह बिबियापुर में कक्षा एक की बच्ची संग दुष्कर्म हुआ। इन सभी घटनाओं में शिकार मासूमों को हवस का शिकार बनाने वाले उन पर काफी समय से निगाह बनाये हुए थे।


शाबाश इंडिया :(

Saturday, March 26, 2011

झूठा सच

वो ही तो है मेरा दर्पण
करती हूँ दिल उनको अर्पण

मान सम्मान उन्ही चरणो में
स्वीकारें मेरा पूर्ण समर्पण

वो मेरा सच वो सर्वोत्तम
भूलूं उन्हें तो निकले ये दम

सुबह उन्ही से साँझ उन्ही से
वही तो हैं मेरे सच्चे हमदम।


..time passes..


तू झूठा तेरा दर झूठा
वचन थे तेरे कपट भरे

छल प्रपंच से मुझको लूटा
कुत्ते की तू मौत मरे

दिल से पूजूं राम को मैं तो
सर्वनाश तेरा हो जाये

मुझको धोखा देने वाले
चैन कभी भी तुझे आये।

Sunday, March 13, 2011

Treasury of India

Hey guys,
I will be discussing here the journey of human life from pre-birth to death in below middle class family. Keep patience because this blog, may be, will take weeks to get it's structure. We will try to look closely every aspect of life from the pregnancy of mother to the toughest nine month of survival of mother and child, birth like a rebirth of mother, upbringing of the child, their education, survival in the schooling, quality of food, living, health, games; social surroundings, educational quality being provided, problems and difficulties of teenagers, their sexual and moral exploitation, imposition of presumptions and outdated comprehensions by their parents, growing mature and first step out from home, growing their own ideas about life and society, following the immature principles, marrying, having children, fighting for fulfilling family needs and creeps, growing old, complete cutoff from the family, social vulnerability to the death. In the course of the story we will look in to the ugly face of society we are made of, or to say we have created.

No matter how many times it already has happened, The Lady is again pregnant. Sometimes because the married couple don't have satisfactory no. of male children, sometimes it's just because of unawareness or carelessness, sometimes because tools of protection are too costly to afford, and very often the almighty GOD is responsible for all the holy craps.

Neither the innocent lady nor the stupid husband are ready to take the responsibility for the present deed. Half a dozen children, already present in the home, are weeping and crying. Almost naked, empty stomach and probably each of them is struggling with this or that kind of hidden illness ,representing the economical condition and incapability of upbringing the child, of parents. Every old cock is celebrating and is happy for this mishap. No-one feels any need to care the health, diet of the pregnant lady. Only thing people are waiting for is the time when medical checkup can test the sex of the child.

Depending on the medical report, though pre-birth sex checkup is illegal and crime, the lady is mentally treated for rest of her life. The pregnancy period is at the edge still the lady works more then average and don't get enough rest. The child inside her womb is under threatening conditions and is not sure that it's going to be normal entry in the world or the premature birth leading to death (reason of 39% of total infant death in first year TOI) or even if child survives whether he(she) will get the breast feeding and see the mother.

Whether the Lady gives normal birth or undergoes a cesarean, if survives is almost dead. Rest of the family is, whether celebrating joy or weeds, expects from the lady to come back to the normal active life as soon as possible, no matter how week she is. Father of the new born child has celebrated enough and enjoying the company of gamblers or drunken and is not worried at all about the future and needs of new born child or his wife.