पहली बार अपने माता-पिता को इतना ज्यादा घबडाया हुआ तब देखा था जब उस शाम मैं बदहवास सी अचानक, बिना खबर किये शहर से घर पहुची थी। मेरी रक्तहीन सूरत पर गड्ढों से झांकती तेजहीन आँखे देख, काले साए जैसा सन्नाटा घर में पैर पसारने लगा था। पूरे परिवार का दिल किसी अनहोनी की आशंका से तड़प कर खून के आंसू बहा रहा था। मेरे मुह से शब्द नहीं फूट रहे थे, मुझे खुद विश्वास न हो रहा था कि मैं शहर से घर कैसे पहुची। मा को पछाड़े खाते देखा न गया तो मैं धीरे से बुदबुदाई "१५ दिन से अन्न ग्रहण नहीं किया, और कोई खास बात नहीं"। कुछ शंकाएं विदा हुईं तो नयी शंकाओं ने घर कर डाला। घर में अजीब सी बेचैनी और डर मुझसे चिल्ला चिल्ला कर पूछ रहा था "आखिर हुआ क्या है?"
खाना त्याग प्राण देने का प्रण होता तो घर ही न जाती। थोडा बहुत खाना पेट में गया तो कुछ साहस बंधा, रात में सभी लोगो को इकठ्ठा कर एक ही सांस में कह बैठी, "मुझे गैर जाति के लड़के से असीम प्रेम है, और मैं उसी के साथ शादी करना चाहती हूँ। अन्यथा आजीवन अविवाहित ही रहना पसंद करुँगी। मैं अपना सर्वस्व उसी को न्योछावर करती हूँ।" मैंने दहेज़ प्रथा और समाज की अन्य कुरीतियों के प्रति अपने विचार रखे, जिनका मेरे माता-पिता स्वयं निष्ठां से आजीवन पालन करते आये थे। मुझे याद आता है कि मेरे पिता ने एक बार स्वयं कई महीनो तक मुझसे बात नहीं की थी क्युकी मैंने गाँव की उस लड़की से मुलाकात कर ली थी जिसके भाई ने प्रेम विवाह किया था।
अविश्वसनीय तरीके से बुजुर्गों ने रूढ़ियों की मजबूत दीवार को तोड़ने में क्षण भर की देरी न की। जीवन भर के अनुभव से उन्होंने जो विश्वास और सिद्धांत निर्मित किये थे, मेरे परिकल्पित सुख के लिए रेत के महल से ढह गए। और उनकी जगह ऊंचे और परिपक्व ख्यालों की स्थापना हुई। रात काफी बीत चुकी थी सो आगे का कार्यक्रम सुबह तक के लिए स्थगित हुआ। सुबह होते ही लोग, अपनी वार्गिक श्रेष्ठता को ताक पर रख, मेरे रिश्ते की बात करने निकल पड़े।
दो घंटे भी न बीते होंगे मुझे खबर मिली कि "जो मेरे नाम का हर घडी दम भरता था, जो मेरे बिना जीने को स्वप्न में भी स्वीकार न करता था, जो मेरे समाज से भिन्न ख्यालों का असीम आदर करता था, जो मुझे अपना खुदा कहता था, उसे पाने में मैंने देर कर दी।" पीछे मुड कर देखा तो पाया कि अपने जिन सिद्धांतो को मैं शहर में तिलांजलि दे कर गाँव आई थी वो मेरे पीछे गाँव आ पहुचे हैं और मेरे परिवार वालों के सिद्धांतों के साथ जख्मी पड़े कराह रहे हैं, और मेरा भविष्य असाध्य रोग से अभिशप्त हो अंतिम सांसें ले रहा है। जिस ईश्वर पर अटूट विश्वास था वो कायरों की माफिक मुझे मेरी ही बदहाली पर आंसू बहाता छोड़ नदारद हो चुका है। जीवन के हर पहलू में तर्क खोजने वाली मैं आज असंगत हो सर्वनाश के चौराहे पर बिल्कुल असहाय सी खडी थी। और मेरा भूत मेरी दुर्दशा पर अट्ठाहास लगा रहा था।
राम
खाना त्याग प्राण देने का प्रण होता तो घर ही न जाती। थोडा बहुत खाना पेट में गया तो कुछ साहस बंधा, रात में सभी लोगो को इकठ्ठा कर एक ही सांस में कह बैठी, "मुझे गैर जाति के लड़के से असीम प्रेम है, और मैं उसी के साथ शादी करना चाहती हूँ। अन्यथा आजीवन अविवाहित ही रहना पसंद करुँगी। मैं अपना सर्वस्व उसी को न्योछावर करती हूँ।" मैंने दहेज़ प्रथा और समाज की अन्य कुरीतियों के प्रति अपने विचार रखे, जिनका मेरे माता-पिता स्वयं निष्ठां से आजीवन पालन करते आये थे। मुझे याद आता है कि मेरे पिता ने एक बार स्वयं कई महीनो तक मुझसे बात नहीं की थी क्युकी मैंने गाँव की उस लड़की से मुलाकात कर ली थी जिसके भाई ने प्रेम विवाह किया था।
अविश्वसनीय तरीके से बुजुर्गों ने रूढ़ियों की मजबूत दीवार को तोड़ने में क्षण भर की देरी न की। जीवन भर के अनुभव से उन्होंने जो विश्वास और सिद्धांत निर्मित किये थे, मेरे परिकल्पित सुख के लिए रेत के महल से ढह गए। और उनकी जगह ऊंचे और परिपक्व ख्यालों की स्थापना हुई। रात काफी बीत चुकी थी सो आगे का कार्यक्रम सुबह तक के लिए स्थगित हुआ। सुबह होते ही लोग, अपनी वार्गिक श्रेष्ठता को ताक पर रख, मेरे रिश्ते की बात करने निकल पड़े।
दो घंटे भी न बीते होंगे मुझे खबर मिली कि "जो मेरे नाम का हर घडी दम भरता था, जो मेरे बिना जीने को स्वप्न में भी स्वीकार न करता था, जो मेरे समाज से भिन्न ख्यालों का असीम आदर करता था, जो मुझे अपना खुदा कहता था, उसे पाने में मैंने देर कर दी।" पीछे मुड कर देखा तो पाया कि अपने जिन सिद्धांतो को मैं शहर में तिलांजलि दे कर गाँव आई थी वो मेरे पीछे गाँव आ पहुचे हैं और मेरे परिवार वालों के सिद्धांतों के साथ जख्मी पड़े कराह रहे हैं, और मेरा भविष्य असाध्य रोग से अभिशप्त हो अंतिम सांसें ले रहा है। जिस ईश्वर पर अटूट विश्वास था वो कायरों की माफिक मुझे मेरी ही बदहाली पर आंसू बहाता छोड़ नदारद हो चुका है। जीवन के हर पहलू में तर्क खोजने वाली मैं आज असंगत हो सर्वनाश के चौराहे पर बिल्कुल असहाय सी खडी थी। और मेरा भूत मेरी दुर्दशा पर अट्ठाहास लगा रहा था।
राम
अच्छा लिखा है! :-)
ReplyDeleteji shukriya...
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