काम करते करते ऊब जाने पर या जब मन उदास होता है तो खिड़की से झांकते हुए बगीचे में चली आती हूँ। आते ही देखती हु सारा नजारा जैसा सालों पहले था वैसा ही है। बगीचे के पेड़ न तो पतझड़ मानते हैं न बसंत, न तो पौधों पर लगे फूल मुरझाते हैं न ही उनमे नए फूल ही आते हैं। न तो कोई नया व्यक्ति आता है न ही कोई आया हुआ जाता है। पेड़ों से घिरा एक छोटा सा मैदान है जिसमे अजीब स्थिति में, एक दूसरे से पीठ किये हुए, दो बेंच आपस में फैसला रखे हुए हैं। मेरे ख्याल से वो किसी काल्पनिक बल से बंधे हुए हैं। उनमे से एक बेंच पर एक अधेड़ व्यक्ति हमेशा की तरह खोया हुआ सा बैठा है। जिसे मेरे उस बाग़ में होने की खबर नहीं है और न ही शायद दूसरी बेंच के पास जमीन पर बैठी उस किशोर लड़की की अक्खड़ हंसी की, जो पास की बेंच में बैठी अपनी उम्रदराज होती माँ के साथ मीठी शरारत कर रही है। इस बेंच पर बैठी स्त्री की भी मानसिक स्थिति उन महाशय से मिलती जुलती है। शायद ये किशोरी जानती हो कि मैं वहां पर हूँ। क्यूंकि मुझे मालूम है कि इस किशोरी की उम्र १५ साल है और ये किशोरी कभी ठुमकते हुए छोटे छोटे कदमो से गिरते पड़ते दोनों बेंचों को किसी अद्रश्य धागे से बाँधा करती थी।
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