Thursday, June 16, 2011

बंधन

काम करते करते ऊब जाने पर या जब मन उदास होता है तो खिड़की से झांकते हुए बगीचे में चली आती हूँआते ही देखती हु सारा नजारा जैसा सालों पहले था वैसा ही हैबगीचे के पेड़ तो पतझड़ मानते हैं बसंत, तो पौधों पर लगे फूल मुरझाते हैं ही उनमे नए फूल ही आते हैं तो कोई नया व्यक्ति आता है ही कोई आया हुआ जाता हैपेड़ों से घिरा एक छोटा सा मैदान है जिसमे अजीब स्थिति में, एक दूसरे से पीठ किये हुए, दो बेंच आपस में फैसला रखे हुए हैंमेरे ख्याल से वो किसी काल्पनिक बल से बंधे हुए हैंउनमे से एक बेंच पर एक अधेड़ व्यक्ति हमेशा की तरह खोया हुआ सा बैठा हैजिसे मेरे उस बाग़ में होने की खबर नहीं है और ही शायद दूसरी बेंच के पास जमीन पर बैठी उस किशोर लड़की की अक्खड़ हंसी की, जो पास की बेंच में बैठी अपनी उम्रदराज होती माँ के साथ मीठी शरारत कर रही हैइस बेंच पर बैठी स्त्री की भी मानसिक स्थिति उन महाशय से मिलती जुलती हैशायद ये किशोरी जानती हो कि मैं वहां पर हूँक्यूंकि मुझे मालूम है कि इस किशोरी की उम्र १५ साल है और ये किशोरी कभी ठुमकते हुए छोटे छोटे कदमो से गिरते पड़ते दोनों बेंचों को किसी अद्रश्य धागे से बाँधा करती थी

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