जितने आर्थिक और तार्किक स्तरों में हमारा समाज वर्गीकृत है लगभग उतने ही स्तरों में हमारी मूलभूत शिक्षा भी. स्वभावतः उस स्तर की बात न करूँगा जिसका भार उठाने की क्षमता विलासी वर्ग तक सीमित हो. मुश्किलें वहाँ भी हैं लेकिन उनका विश्लेषण मेरे वश की बात नहीं. मैं तो उस वर्ग की बात करूँगा जहाँ बच्चे दोपहर के भोजन की आस में विद्यालय जाते हैं.
जिस राष्ट्र में किसान भूख और कर्ज के कारण आत्म हत्या कर रहे हों वहाँ मध्यांतर भोजन जैसी योजना का क्रियान्वयन नीति नियंताओं की परिपक्व दूरदर्शिता को प्रतिबिंबित करता प्रतीत होता है. ये बात गैर है कि यही नीति नियंता ३० रूपये प्रतिदिन की आमदनी को पर्याप्त समझते हैं, वो भी तब जब ३० रुपये किलो घास भी नहीं मिलती. मेरा सुझाव इन्हें हैं कि ये इसे ३० रूपये की बजाय १० करोड़ जिम्बाब्वे डॉलर कर दें ताकि लोग नोट खा खा के ही मर जायें और कोई भी शिकायत न कर सके कि उसे पर्याप्त पैसे नहीं मिल रहे, पेय जल की शिकायत गरीब नहीं करता.
खैर कम से कम जो बच्चे घर में राशन की अनुपस्थिति के कारण भूखे बैठे रहते थे उनका एक वक्त का भोजन तो पक्का. घटिया और पोषक तत्त्व विहीन यह भोजन उन्हें कुपोषण से ग्रस्त कर मंद गति से काल के गाल में भेजेगा इसकी फिक्र न तो स्कूल प्रबंधन को होती है और न ही बच्चों के माता-पिता को समझ. सरकारी तंत्र का दावा कि इस योजना के क्रियान्वयन से बच्चों के नामांकन और उनकी स्कूल में उपस्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है; जमीनी हकीकत, फर्जी नामांकन, के सामने दम तोड़ता नजर आता है. उस पर पेंच ये कि जिस दिन अधिकारी, जिसे शायद ही उन बच्चों की स्वयं के बच्चों सी परवाह हो, का दौरा होता है उस दिन स्कूल की सफाई से लेकर अध्यापकों की उपस्थिति तक में अन्य दिनों की तुलना में अविश्वसनीय इजाफा हो जाता है.
शिक्षा की बात करना तो बेमानी सा लगता है. एक व्यक्ति द्वारा किया गया सामान्य सर्वे ये बताने के लिए काफी है कि अधिकाँश अध्यापक बच्चों को पढ़ाना तो दूर, स्कूल में उपस्थिति तक दर्ज करने नहीं पहुंचते. शेष घर में समय न बिता पाने, व्यक्तिगत काम न होने, पिछले दिनों की नदारदगी को उपस्थिति में परिवर्तित करने या दरबार लगाने के उद्देश्य से स्कूल के दर्शन करते हैं. शिक्षा मित्र रूपी परंपरा ने मूल अध्यापक और शिक्षा मित्र के बीच स्वामी और दास जैसी परंपरा को पुख्ता किया है, और अध्यापन का सारा भार उन शिक्षा मित्रों के सर फूटता है जिनके परिवार गाँवों में प्रतिष्ठा के मूल नहीं हैं. स्कूल में खेलकूद की सुविधाओं का तो अकाल रहता है परन्तु बच्चों का अधिकाँश समय खेलकूद और मध्यान्ह भोजन के इन्तजार में जाता है. शिक्षा के स्तर की प्रतिष्ठा के लिए एक उदाहरण पर्याप्त है. ताजा नियुक्त बी एड डिग्री धारी अध्यापक, जिसने परास्नातक की डिग्री भी संभवतः ले रखी हो, से अगर पूछा जाता है कि पेड़ से टूटा हुआ सेब जमीन पर क्यों गिरता है तो पलक झपकते ही उत्तर मिलता है "न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से". ऊपर की ओर फेंकी गयी गेंद जमीन पर क्यूँ आ गिरती है के सामने बगलें झांकता नजर आता है. ये अध्यापक पहाड़े रटवाने और विकृत भाषा सिखाने के अलावा और क्या कर सकता है भगवान जाने. उस पर तुर्रा ये कि उन्हें शिकायत है कि उनकी योग्यता के अनुरूप पद की प्राप्ति नहीं हुई, वो ये अछूत काम करने के लिए नहीं बने के बहाने के साथ अपनी जिम्मेदारियों से अच्युत हो राष्ट्र के भविष्य के साथ शर्मनाक मजाक करते हैं. और अधिकाँश समय अपनी ताजा गृहस्थी सम्हालने और संवारने में बिताते हैं. बूढ़े हो चुके अध्यापक पैर फैलाकर बच्चों में जातीय विष घोलने और अपने से नीचे वालों के कान उमेठने में बहादुरी समझते हैं. युवा अद्यापिका सारा समय साज श्रृंगार के बारे में चिंतित, अन्य स्त्रियों के चरित्र को चिन्हित करती और हर पुरुष में व्यभिचारी खोजती बिताती है एवं उम्रदराज भेदों के लेनदेन और स्वेटर बुनने सरीखे घरेलू काम निबटाते हुए. नैतिक शिक्षा जरूर दी जाती है लेकिन व्यवहार में उसका पालन कहीं नहीं दिखता. शेष कमी अभिभावकों की अशिक्षा और उनकी बच्चों के प्रति गैर जिम्मेदारी से पूरी होती है.
रूस में रक्त क्रांति (प्रारंभ १९०५) से भी पूर्व जो अध्यापक बच्चों को किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना देते थे उनके लिए साइबेरिया भेजने तक की कठोर सजा दी जाती थी, ऐसे अध्यापक की लोक समाज में प्रखर आलोचना होती थी और उन्हें घ्रणा की द्रष्टि से देखा जाता था. महाभारत काल में भी शिष्यों की पिटाई पर मृत्यु दंड के प्रावधान का उल्लेख है. लेकिन हमारे यहाँ पहले दिन की सुरुआत समझावन लाल से ही होती है. हर कक्ष में अध्यापक वजह-बेवजह बच्चों के स्वाभिमान की ऐसी तैसी करते मिल जायेंगे. घर परिवार से सम्बंधित झुंझलाहट भी अक्सर यहीं निकलती है. समझ गयी तेल बेचने, बच्चों ने पाठ नहीं याद किया या गुरु जी अनुत्तरित हैं पिटेंगे क्षात्र. हर समस्या का समाधान डंडे से होता है. जो जितना गरीब है उतना ज्यादा पिटेगा. घर में भी हालत विपरीत नहीं होते, बड़े नुकसान करें या बच्चे आफत बच्चों के सर फूटनी है. बच्चों के आत्म सम्मान (watch Brothers Karamazov) को मिट्टी में मिलाने का काम परिजन बड़ी जिम्मेदारी से निभाते हैं. अपने पराये का ज्ञान सर्वप्रथम बच्चों को माँ ही देती है.
नतीजतन ५वीं गुजरते गुजरते अधिकांश बच्चों का शिक्षा से लगाव मर चुका होता है. आगे बढ़ना भी चाहें तो उनकी नींव में राख और गौरव में भूसा भरा होता है. घर में मूलभूत सुविधाओं का अभाव आगे चलकर धन के प्रति अप्रतिम लगाव और मानवीय असहिष्णुता की पहली सीढ़ी का निर्माण करता है, ये कहना आप को भी यहाँ असमसामयिक लगेगा.
रूस में रक्त क्रांति (प्रारंभ १९०५) से भी पूर्व जो अध्यापक बच्चों को किसी भी प्रकार की शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना देते थे उनके लिए साइबेरिया भेजने तक की कठोर सजा दी जाती थी, ऐसे अध्यापक की लोक समाज में प्रखर आलोचना होती थी और उन्हें घ्रणा की द्रष्टि से देखा जाता था. महाभारत काल में भी शिष्यों की पिटाई पर मृत्यु दंड के प्रावधान का उल्लेख है. लेकिन हमारे यहाँ पहले दिन की सुरुआत समझावन लाल से ही होती है. हर कक्ष में अध्यापक वजह-बेवजह बच्चों के स्वाभिमान की ऐसी तैसी करते मिल जायेंगे. घर परिवार से सम्बंधित झुंझलाहट भी अक्सर यहीं निकलती है. समझ गयी तेल बेचने, बच्चों ने पाठ नहीं याद किया या गुरु जी अनुत्तरित हैं पिटेंगे क्षात्र. हर समस्या का समाधान डंडे से होता है. जो जितना गरीब है उतना ज्यादा पिटेगा. घर में भी हालत विपरीत नहीं होते, बड़े नुकसान करें या बच्चे आफत बच्चों के सर फूटनी है. बच्चों के आत्म सम्मान (watch Brothers Karamazov) को मिट्टी में मिलाने का काम परिजन बड़ी जिम्मेदारी से निभाते हैं. अपने पराये का ज्ञान सर्वप्रथम बच्चों को माँ ही देती है.
नतीजतन ५वीं गुजरते गुजरते अधिकांश बच्चों का शिक्षा से लगाव मर चुका होता है. आगे बढ़ना भी चाहें तो उनकी नींव में राख और गौरव में भूसा भरा होता है. घर में मूलभूत सुविधाओं का अभाव आगे चलकर धन के प्रति अप्रतिम लगाव और मानवीय असहिष्णुता की पहली सीढ़ी का निर्माण करता है, ये कहना आप को भी यहाँ असमसामयिक लगेगा.
मेरा उद्देश्य अध्यापकों के मुंह पर कालिख पोतना नहीं है..... लेकिन हमारी वर्तमान/आगामी पीढी और भारत के भविष्य का चेहरा झुलसा हुआ है. आशा की किरण सिर्फ और सिर्फ प्राथमिक विद्यालय के अद्यापक के हाथ में है.
Further additions in this post are expected.... Ram
very true...
ReplyDeleteसत्य वचन भ्राता! तात्कालिक टिप्पणी के अभाव में अभी बात यहीं समाप्त करता हूं...:-)
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