दिन भर की चहल पहल से फारिग हो थोडा आराम करने का दिल चाहा तो मेहमान कक्ष में ही ऊंघने लगी। आज घर में एक खास मेहमान आया था, मेरी थकान प्रमुखतः इस मेहमान के इन्तजार में रात भर न सोने के कारण थी, बाकी कुछ काम और कुछ इस ख़ास मेहमान की खातिरदारी। मेहमान की उपस्थिति भी मेरी नींद को रोक न सकी और मैं ढेर हो गयी। झपकी ली ही थी कि दोनों गालो में एक के बाद एक मखमली सा एहसास छू गया। मस्तिष्क थोड़ी देर के लिए सक्रिय हुआ, उस अलबेले ने अमर प्रेम की पहली निशानी सुपुर्द कर दी थी, वो दिल जो खामोस हो मेरी जीवन रेखा को लम्बा कर रहा था अचानक जोरों से छटपटाने लगा। किसी दर्द से बेबस नहीं, उस अनोखे समर्पण के एहसास और उमंग को सम्हाल न पा रहा था, बस। नींद हिरनी की तरह कुलांचे भरती हुई कोसों दूर निकल गयी थी। मैं समझ न पा रही थी की इस एहसान का शुक्रिया कैसे अदा करूँ। आज जैसे लग रहा था जीवन का मकसद पूरा हो गया। आज ऊपर वाले ने वो दे दिया जिसकी स्वप्न में भी कल्पना न की थी। आँखें मूंदे थोड़ी देर लेटी रही, पर रहा न गया, आँख खोली तो पाया की मेहमान की आँखों में अनोखी शरारत और मेरे चेहरे पे जन्नत सा सुकून हमारे अमर प्रेम की दास्ताँ लिखने को कातर हुआ जा रहा है।
थोड़ी देर पहले ही तो हम लोग गंगा किनारे शाम की सैर को निकले थे। वो भी चुप थे और मैं भी खामोश थी। अन्दर से आवाज़ तो निकलती थी लेकिन गले से बोल ना फूटते थे। उनका हाल मुझसे जुदा न था। कितनी सारी बातें, कितने अरमान हिलोरें मार रहे थे लेकिन कुछ भी बाहर तो न आता था। जी करता था हांथो में उसका चेहरा ले आँखों में आँखें डाल इस पावन गंगा में उतर जाऊं। अजीब ख़याल था। किनारे पहुचे तो वो गंगा की ओर और मैं विपरीत दिशा में मुह कर के बैठे थे। प्रकृति की छटा निराली थी ये एहसास तो बहुत देर से हुआ, मुझे तो बस ये ही ख़याल था की उसके हाथ की दूरी मेरे हाथ से २ सेमी से ज्यादा न रही होगी। कितनी मन्नतें मना डालीं एक स्पर्श की चाह में, माथे पर पसीने की बूंदे छलक आयीं लेकिन ये दूरी तय न हो रही थी। अचानक वो मेरी गोद में सर रख उगते हुए चाँद की सराहना करने लगा। मेरा दिल उछल कर गंगा में छलांग लगा बैठा। थोड़ी देर बाद जब उखड़ी सांसें सामान्य हुईं तो मुझ पर एक मीठी ईर्ष्या का लेप चढ़ गया। मैं इतने सपने संजोने लगी जितने आज तक देखे भी न थे। प्राण पुकारते थे जब भी निकलें बस इसी अवस्था में। घंटों बीत गए होंगे, उसके सर का भार जैसे फूल से भी हल्का था। सैर ख़त्म कर घर वापस जाने की बात निकली तो जैसे शरीर में जान ही न रह गयी। मेरी प्राणप्रिय गिलहरी हमेशा की भांति मेरी हर हलचल की गवाह थी लेकिन आज ये पहला मौका था जब मैं अपनी भावनाएं उसके साथ साझा नहीं कर पा रही थी।
राम
थोड़ी देर पहले ही तो हम लोग गंगा किनारे शाम की सैर को निकले थे। वो भी चुप थे और मैं भी खामोश थी। अन्दर से आवाज़ तो निकलती थी लेकिन गले से बोल ना फूटते थे। उनका हाल मुझसे जुदा न था। कितनी सारी बातें, कितने अरमान हिलोरें मार रहे थे लेकिन कुछ भी बाहर तो न आता था। जी करता था हांथो में उसका चेहरा ले आँखों में आँखें डाल इस पावन गंगा में उतर जाऊं। अजीब ख़याल था। किनारे पहुचे तो वो गंगा की ओर और मैं विपरीत दिशा में मुह कर के बैठे थे। प्रकृति की छटा निराली थी ये एहसास तो बहुत देर से हुआ, मुझे तो बस ये ही ख़याल था की उसके हाथ की दूरी मेरे हाथ से २ सेमी से ज्यादा न रही होगी। कितनी मन्नतें मना डालीं एक स्पर्श की चाह में, माथे पर पसीने की बूंदे छलक आयीं लेकिन ये दूरी तय न हो रही थी। अचानक वो मेरी गोद में सर रख उगते हुए चाँद की सराहना करने लगा। मेरा दिल उछल कर गंगा में छलांग लगा बैठा। थोड़ी देर बाद जब उखड़ी सांसें सामान्य हुईं तो मुझ पर एक मीठी ईर्ष्या का लेप चढ़ गया। मैं इतने सपने संजोने लगी जितने आज तक देखे भी न थे। प्राण पुकारते थे जब भी निकलें बस इसी अवस्था में। घंटों बीत गए होंगे, उसके सर का भार जैसे फूल से भी हल्का था। सैर ख़त्म कर घर वापस जाने की बात निकली तो जैसे शरीर में जान ही न रह गयी। मेरी प्राणप्रिय गिलहरी हमेशा की भांति मेरी हर हलचल की गवाह थी लेकिन आज ये पहला मौका था जब मैं अपनी भावनाएं उसके साथ साझा नहीं कर पा रही थी।
राम
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