जिस राष्ट्र की बाल्यावस्था की मूलभूत शिक्षा में ही ग्रहण लगा हो, शोध क्षात्रों की बात करना बेमानी है। थोडा ठगी करूंगा, इस वादे के साथ कि मूलभूत शिक्षा की बात अवश्य किसी दिन लिखूंगा, आज की बात कह देता हूँ। भारतवर्ष में, कुछ अपवादों को छोड़कर, शोध कार्य करने की योग्यता पूरे १७+(परास्नातक) वर्षों की परंपरागत शिक्षा के उपरान्त ही पूरी होती है। इस बीच अनगिनत छोटी बड़ी राज्य/राष्ट्र स्तरीय प्रतिस्पर्धाओं से गाहे बगाहे होना होता है। उस पर तुर्रा ये कि अभी ये १७ वर्षों के अकल्पनीय समर्पण को हमारे ही नीति नियामक अपर्याप्त और विफल घोषित कर राष्ट्र स्तरीय प्रतिस्पर्धा आयोजित करते है। स्तर की बात करें तो आप समझ लीजिये कि शायद येही एक प्रतियोगिता जिसमे १० पदों के लिए १०००० आवेदन से कम आते होंगे। कारण स्वयं ही खुद को प्रतिष्ठित करेंगे। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि चपरासी के हर एक पद के लिए वेटिकन सिटी जैसा छोटा मोटा राष्ट्र शत प्रतिशत आवेदन करता है, जैसे कि किसी पोप का पद मिलने वाला हो।
राष्ट्र में शिक्षा के स्तर को आंकने के लिए मेरा चार पक्तियों का पिछला पोस्ट पर्याप्त है. ये बताता है कि कम से कम १५ वर्षों की विद्यालय से प्राप्त शिक्षा और अनगिनत वर्षों के स्वयं श्रम का क्या हश्र होता है. इसलिए शोध कार्य प्रारंभ करने के लिए और उसकी गुणवत्ता की जरूरत को ध्यान में रखते हुए प्रतियोगिता एक तुच्छ किन्तु टिकाऊ उपाय है. राष्ट्र के उच्च शोध संस्थान विश्व के स्तर पर कहाँ बैठते हैं के लिए लम्बी बहस चलायी जा सकती है किन्तु उनमे प्रवेश विश्व स्तरीय संस्थाओं में प्रवेश पाने से भी दुरूह विकल्प है इसमें कोई संदेह नहीं. कुल मिलाकर शोध की शुरुआत करने के लिए तैयार होते होते व्यक्ति की औसत आयु कम से कम ५+१७+(१-२)=२३-२४ वर्ष बैठती है. तमाम दुरूहताओं को ध्यान में रखा जाए तो ये संख्या बढ़ते देर नहीं लगती. ये वो उम्र है जब कि इंसान से परिवार और समाज के प्रति जिम्मेदारियों और उनकी समझ की आशा की जाती है या जानी चाहिए। ये वो उम्र भी है जब कि इंसान अपने सक्रिय जीवन का आधा पड़ाव पार कर चुका होता है. यहाँ से प्रारंभ यात्रा कहाँ जानी है ये पता लगते लगते (PhD की उपाधि मिलते मिलते) ५-६ वर्ष का समय लगना पुष्ट है, और तब तक चेहरा निश्तेज, चश्मे का नंबर -५, त्वचा की चमक फीकी, सर के आधे बाल नदारद, शेष में से आधे सफ़ेद, और संवेदनशीलता नगण्य हो चुकी होगी, जोश में इसका ख़याल भी नहीं रहता। क्युकि हमारे जिस अंधे समाज में ब्रम्हचारी और कथित साधू पूज्यनीय है उसी तरह शिक्षित समाज में वैज्ञानिक सम्माननीय है। और जैसे ही कोई व्यक्ति साधू होने का निर्णय लेता है तो लोग उत्सव मानते हैं, ताकि ये भावी साधू दुबारा सामान्य होने के बारे में सोच भी न सके, वैसे ही शोध छात्र की चहुँ ओर प्रशंशा होती है और सारी व्यवस्था होती है कि शोध जीविकोपार्जन का मनपसंद व्यक्तिगत निर्णय न होकर बलिदान हो जाए।
होता कुछ यु है कि जो क्षात्र अपने समकक्षों में अव्वल होता है, जिसे सीखने जानने की ललक होती है वो जाता है शोध के लिए और शेष पेशेवर विषय चुनकर शिक्षा और अनावश्यक मानसिक परिश्रम से मुक्ति पाते हैं। कुछ ही दिन बीतते है, शोध क्षात्र के पास उसके मित्र का सुबह सुबह फ़ोन आता है कि उसका किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में चयन हो गया है और विभिन्न किस्म के लाभों सहित उसका वेतन लाखों की सीमा छू रहा है। निवास के लिए सुसज्जित मकान और माता पिता की चिकित्सीय जरूरतों के साथ तमाम तरह की सुविधायें, राष्ट्र की उन्नति का प्रतीक और आज की आवश्यकता, भी शामिल हैं। यह मित्र अपने भविष्य की योजनाओं में कुछ वर्षों में एक आलीशान घर बनाना और ऐसी ही कुछ चीजें गिनाता है (चार पहिया वाहन चंद दिनों में उसकी होने वाली धर्मपत्नी लेकर आएगी)। इस ख़ुशी के पल में इत्तेफाकन वो पूछ बैठता है "और तुम्हारा क्या चल रहा है?" थोड़ी देर की ख़ामोशी ही सब कुछ बयां करती प्रतीत होती है। स्वाभाविक प्रश्नों के उत्तर शब्दों में कुछ इस तरह पिरो सकते हैं(कृपया धीरे पढ़े और प्रश्न स्वयं निर्मित करें)। यार, अभी तो कुछ खास नहीं। लेकिन इस साल शायद एक पेपर आ जायेगा; फेलोशिप ठीक ठाक है, काम चल जाता है, तुम तो जानते हो मुझे पैसे से ख़ास लगाव नहीं है; हाँ अभी तीन(कुछ गायब) साल और लगेगा उसके बाद पोस्ट डोक्टोरेट के लिए जाना होगा; नहीं, देखता हु अगर बाहर मिल गया तो अच्छा वरना यहीं करूंगा; कुछ चार पांच में हो जायेगा; भाई, वो तो सिविल सर्विस(यकीन नहीं) की तैयारी कर रहा है, ऍम बी ऐ करना चाहता था, मेरे पास पैसे नहीं थे फीस के; घर पर मां और छोटी बहन है; तुमको शायद बताया नहीं पिता जी तो पिछले साल ही....; मालूम नहीं कैसे, शायद बीमार थे। नहीं घर तो जाना नहीं हो पाता, काम लगा रहता है; मां आई थी पिछले महीने डॉक्टर को दिखाना था; ना यार, अभी तो छोटी बहन की पहले करनी होगी वैसे भी कोई अभी तक मिली नहीं; देखा है लेकिन पैसे बहुत मांग रहे हैं; वो, वो तो गयी।
मित्र प्रगतिशील है इसलिए शोध क्षात्र से सच्ची सहानुभूतिपूर्ण भारी गले से अगले महीने के मुहूर्त में शादी का निमंत्रण दे फ़ोन रख देता है। उसे मालूम है कि चाह कर भी ये ५०० किमी दूर उसकी शादी में शामिल होने नहीं आने वाला। सुबह के सात बज चुके हैं, शोध क्षात्र ऊंघते हुए कंप्यूटर पर "job submit" कर दहेज़ (कु)प्रथा को कोसता हुआ बिस्तर का रुख करता है।
मित्र प्रगतिशील है इसलिए शोध क्षात्र से सच्ची सहानुभूतिपूर्ण भारी गले से अगले महीने के मुहूर्त में शादी का निमंत्रण दे फ़ोन रख देता है। उसे मालूम है कि चाह कर भी ये ५०० किमी दूर उसकी शादी में शामिल होने नहीं आने वाला। सुबह के सात बज चुके हैं, शोध क्षात्र ऊंघते हुए कंप्यूटर पर "job submit" कर दहेज़ (कु)प्रथा को कोसता हुआ बिस्तर का रुख करता है।
जारी...
Very truely said direct dil se
ReplyDeleteReally !!!!! Its true and heart touching.......
ReplyDeleteWell written Guruver...
ReplyDeleteWell said dude..any solution?
ReplyDeletecan u transalte in to english plzz...
ReplyDeleteIts really true. Ram Bhaiya, Well written
ReplyDeleteबहुत खूब...इस बार वैचारिक पैनापन पूरे शबाब पे रहा।
ReplyDeleteBhai Ab Kya Ruloage? Mai sab se kahta hu, Ab swarg me bajarangi peeche laat mar ke fir wapas bhej denge is duniya me. Kyoki is janm me koi bhi armaan to poore kar nahi paaye aur hume santusti to mili nahi.
ReplyDeleteOMG Plz help our PhD nasal to improve our situation........................