बहाना कोई भी हो दिन में कम से कम एक बार तो लाइब्रेरी जाना हो ही जाता है | इन सभी कारणों में वो कारण तो बिलकुल ही नहीं होता जिसकी आशा एक छात्र से की जा सकती है | क्योंकि वो सभी आवश्यक पुस्तके जो अपने काम की हैं वो लाइब्रेरी में तो हैं ही नहीं, क्योंकि वो तो हम निर्गत कर के अपने दफ्तर ले गए हैं | परन्तु जब कोई बहाना नहीं होता लाइब्रेरी जाने का तो सोना सबसे अच्छा कारण हो जाता है | कसम उस खुदा की जिसका नाम लेके लोग क़त्ल -ऐ -आम मचाते हैं या उन महादेव की जिनका जयकारा लगते हुए लोग सामूहिक बलात्कार जैसे संगीन पुण्य के काम कर जाते हैं, हमें लाइब्रेरी में नींद बड़ी जबरदस्त आती है |
लेकिन कभी कभी घोर उदासीन इंसान पिछले जन्मों के पापो का प्रायश्चित करने के लिए दैनिक समाचार पत्रों पर कृपा जरूर बरपता है | विज्ञानं विषय से शोध छात्र होना कारण हो या अंग्रेजियत का बुखार, सारे दिन की खुमारी, अपने हिंदी समाचार पत्रों की देश भक्त रुपी दावा ही उतारती है | खैर ऊल जलूल बातें छोड़ कर मुद्दे पर आते हैं |
रोज बाबा रामदेव के नियमित योग की भांति जब हम अपना प्रिय समाचार पत्र "अमर उजाला (इसका नाम अगर "घनघोर अँधेरा" होता तो ज्यादा जंचता और पाठक भी ज्यादा समेट सकता था |)" पढ़ रहे थे | तो दो जगहों पर अपनी नजर ठिठकी| वैसे तो आज का इंसान इतना आध्यात्मिक और शांत चित्त हो गया है की अपने गाँधी बाबा होते तो शायद वो भी दो-चार बहुओ को ठिकाने लगा, दस-बारह लोगो की अंतड़िया बाहर निकाल, और चूँकि सम्मानित व्यक्ति थे तो सौ-दो सौ करोड़ का घोटाला कर के ही राष्ट्र पिता बने होते |आज कल के सौहार्द पूर्ण माहौल में तो आत्मा को झकझोरने वाली घटनाओ की पुष्प वर्षा सी होती रहती है | तो नजरे ठिठकने के दो कारण ही क्यों मिले ? सवाल महत्वहीन परन्तु स्वाभाविक है | तो कारण ये है कि :
चलो मान भी ले कि समाज में धर्म से ज्यादा विस्तृत अपराध के पीछे अज्ञान-वेद (वेद क्रम का पांचवा और शायद अंतिम महत्वपूर्ण ग्रन्थ) ही बड़ा कारण है | और ये अपराध-यज्ञ लोगो द्वारा अंतिम वेद के जीवन पर्यंत आत्मसात करने के कारण ही सर्वाधिक प्रचलन में हैं | परन्तु जब कोई व्यक्ति इस वेद को त्याग कर ज्ञान रुपी निम्नता को प्राप्त होता है और हर किस्म के प्रयासों से समाज को तुच्छ परन्तु सौहार्द पूर्ण नयी दिशा देने में पारंगत होकर भी, अजीब तरीके की बाते करना सुरु करता है तो हम मूर्खो का अचकचा जाना स्वाभाविक भले न हो, अकारण भी नहीं है | उदहारण चाहे कलिकी अवतार राज ठाकरे की रामायण ही क्यों न हो |
मुद्दा आज के अच्कचाने का है | हाँ तो आते हैं अपने परम प्रिय अमर उजाला के अंतिम प्रष्ठ की कहानी पर: जानी मानी लेखक, जिनकी पुस्तकें पढ़कर मैं धन्य हुआ, बुकर पुरष्कृत, सामाजिक कार्यकर्ती, अरुंधती मैडम कहती हैं "मओवादियो का समर्थन करुँगी चाहे जेल हो जाये"| अरे मैडम आप मओवादियो के लायक कोई उत्पादक काम तो नहीं करती | आप वो ऐसा साहित्य लिखती हैं जिसकी मांग बाजार में है| मुझे नहीं याद आता की आप की किसी पुष्तक के जिस भी हिस्से पे मेरी नजर पड़ी हो उन्हें अनुभव कर के, घातक और जान लेवा हथियार उठानी की आवश्यकता जान पड़ी हो | बल्कि संभव है मेरा ह्रदय कभी कभी मर्माहत ही हुआ हो| मैंने सुना है माओवादी लेख बहुत ही भड़काऊ और पागल पन से ग्रस्त होते हैं, जिन्हें पढ़ के लोग अपने घर-परिवार, इंसानियत, धर्म को भूल/त्याग कर, मासूम जनता को क़त्ल करने के लिए ऐसी बंदूकें उठा लेते हैं जिनकी कीमत की समता मेरे सम्पूर्ण परिवार की पञ्च-वर्षीय आमदनी भी नहीं कर सकती | आप उन्हें ये हथियार मुहैया कराती हो मुमकिन नहीं लगता | लेकिन कुछ आप के सम्द्रष्ट लोग जो समाज सुधर में बड़ा विश्वास रखते हैं शायद उन्हें लगता है की जिन पैसो से इन गरीब, परिश्थिति जन्य अज्ञानी (हमारी महान सरकार की देन) लोगो को हथियार पुरष्कृत किये जाते हैं उन्ही से इनकी जीविका नहीं चल सकती है (भाई जीविका चल निकले तो किसने हिटलर बनना है, वैसे भी हिटलरो का आज कल स्कोप नहीं है.) | मुद्दा गंभीर है और मैं उपयुक्त दूरदर्शक नहीं | लेकिन इन परिष्ठितियो के लिए हमारी परवरिश और युवा वर्ग की अकर्मण्यता (जिसे लोगो का खून बहाना स्वयं का पसीना बहाने से ज्यादा उचित दिखाई पड़ता है |) सबसे ज्यादा जिम्मेदार दिखती है| और जब देश/समाज आतंक की भयंकर बीमारी से ग्रसित है ऐसे में मैडम का उपरोक्त कथन कोढ़ में खुजली से कम नहीं है | अगर आप समाज की मानसिकता सही दिशा में बदल सकती हैं, तत्पश्चात बहुत सारे अंधभक्त उत्पन्न होना स्वाभाविक है (हम हिन्दुस्तानी तो राम, कृष्ण, शिव, अल्लाह, बुद्ध, ईशा के भी अंध भक्त हो जाते हैं |), तो बहुत संभव है की आप से प्रेरित लोग इस दिशा में भी स्वीकृति बना दे |
स्वच्छ समाज के निर्माण के लिए हथियारों की आवश्यकता नहीं | सुरक्षा गार्ड के हाथ में हथियार शोभा देते हैं ताकि उनसे डरा कर समाज के उचक्कों को डपट के रखा जा सके | भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, उन्माद उसका स्वाभाव है, और उन्माद विनाश का कारक होता है | विनाश के वाहको के हाथ में सुदर्शन शोभा नहीं देता | गाँधी बाबा मूर्ख नहीं थे जो बिना छड़ी चलाये सम्पूर्ण भारत को स्वतंत्रता का सर्वोच्च अधिकार दिला गए |
दूसरा मुद्दा उतना गंभीर नहीं लेकिन है महत्वपूर्ण :
चलते हैं अपने दैनिक ग्रन्थ अमर उजाला के प्रष्ठ १४ पर : पुरी शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी महाराज | बूढ़े हो गए हैं, एक पाँव शमशान पर और दूसरा शाही खजाने पर हमेशा रखते हैं | पता नहीं १०८ लगाते हैं या १००८ या कुछ और| ये बड़ी महत्वपूर्ण संख्याये हैं इन संख्याओ को अपने नाम के साथ तीन ताल कराने के लिए पूज्यनीय, प्रातः स्मरणीय सर्वस्व त्याग करने वाले, समाज कि शोभा और उदहारण कहलाने वाले संत-महात्मा; खूनी संघर्ष करते हुए सुने-सुनाये जाते हैं | धन्यवाद् हमारे स्वार्थी/सुविधा भोगी समाज को कि इन्हें माथा तो टेकता है लेकिन सुनता नहीं या कहे ज्यादा भाव नहीं देता|
आज ही हमें पता चला कि इनकी माँ भी, हर मूढ़ हिन्दू कि माँ कि तरह एक इंसान नहीं गाय ही थी/है | कहते हैं "गोहत्या रोकना हिन्दू समाज की प्राथमिकता"| वैसे तो माँ बाप की हत्या का आज कल चलन है, लेकिन जो चलन है उसमे माँ/बाप इंसान होते हैं गाय/बैल नहीं | इसलिए मेरी समझ वाले माँ /बाप की हत्या का पुन्य कार्य जिसके दिमाग में आ रहा हो उन्हें घबड़ाने की जरूरत नहीं, महाराज जी के सुवचन उनके लिए नहीं |
बात जितनी अटपटी है और असुविधाजनक है उतने तो हठ-योगासन भी नहीं होते होंगे | मेरी असुविधा ये है की ये वाकई गो हत्या रोकना चाहते हैं, किसी भी प्राणी की हत्या रोकना चाहते हैं या अपनी सोसिअल वैलुस रखने के लिए समर्थन जुटा रहे हैं | इनकी अपील समाज से नहीं है | उनसे है जिनके माँ/बाप गाय/बैल हैं | शुक्र है हमारे देश में ही ऐसी किस्म प्रचलित है, और छोटे मोटे बलवो के आलावा कुछ ख़ास उन्नत यज्ञ नहीं कर सकी | वरना क्या पता किसी की माँ मुर्गी होती, किसी की नागिन | समाज कैसा होता कहना मुश्किल है लेकिन कह सकता हु की धर्म गुरुओ का धंधा बड़ा उन्नत होता |
मेरा तात्पर्य यह है कि समाज में वैसे भी बहुत सारी कुरीतियाँ व्याप्त हैं जो कि और भी बड़ी एवं जघन्य हैं| आप भगवान के तुल्य हैं | उन कुरीतियों पर पहला ध्यान दे, बाकि समरूपता धीरे धीरे अवश्य आ जाएगी | माँ को माँ रहने दे और जानवर को जानवर | इंसानों में बहुत भेद किये, अब जानवरों में भेदभाव और द्वेष न फैलाएं | आप किसी समुदाय के धर्म गुरु हैं आप अपने समुदाय में किसी विशेष जानवर की हत्या रोक सकते हैं | लेकिन किसी दूसरे समुदाय का धर्म गुरु अगर उसे उतना ही गैर जरूरी समझता है, जितना कि आप दूसरे जानवर को समझते हैं तो आप के इस तरह के वक्तव्यों से समाज के सामने आप की महत्वाकांक्षा से बड़े संकट आ सकते हैं |
बाते बहुत हैं लेकिन अभी बस इतना ही | किसी दिन समय महाराज कि आज्ञा मिली तो इस ब्लॉग में विस्तार और त्रुटि-संसोधन इंशा-अल्लाह जरूर फ़रमाया जायेगा |
धमाकेदार इन्ट्री मारी है भ्राता :-) अच्छा और सटीक प्रयास :-)
ReplyDeleteDhanyawad
ReplyDeleteव्यंग्य में धार अभी कम है फिर भी मारक क्षमता काफी तेज़ है. धार शायद 'ब्लॉग प्रवेश लेखन मर्यादा' के कारण कम राखी हो! आपकी ज़रुरत व्यंग लेखन के रूप महसूस की जाए- कामना है.
ReplyDeleteहां एन्ट्री धमाकेदार , बिकाऊ, टिप्पणियाऊ, कन्फ़्यूस्ड भाषा, असंबन्धित शब्दावलि में होनी चाहिये चाहे अर्थ कुछ भी न हो.
ReplyDelete---हम गज़ल लिखेंगे जरूर , चाहे मतालवत कुछ भी न हो ।
great satire
ReplyDelete@Shyam: ये एन्ट्री बिकाऊ, टिप्पणियाऊ, कन्फ़्यूस्ड भाषा, असंबन्धित शब्दावलि में हो सकती है। लेकिन आप की प्रतिक्रिया बिल्कुल हि असन्गत है। मैने आप का कोई लेख नही पढा, लेकिन शायद आप के विचार से आप जैसा लेखक नहि दुनिया मे। दुआ है आप के विचार कायम हो जाये। कमेन्ट्स के लिये सभी को धन्यवाद।
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