Saturday, June 26, 2010

कौमार्य का ब्रम्हचर्य

क्या किसी हत्यारे के हाथ में पड़ जाने से ये अच्छा नहीं की मैं किसी वासनादाग्ध औरत के सपनो में उलझा रहू?
जरा इन आदमियों की आँखों में देखो, जो कह रही हैं की वे औरत के सामने झूठ बोलने से बेहतर काम अभी तक नहीं खोज पाए| उनकी आत्मा की तली में गन्दगी और सडन पल रही है| अफ़सोस की उस सडन को भी वो नहीं जी सकते|
मैं नहीं कहता की तुम उस ब्रम्हचर्य का पालन करो, जो कुछ लोगो के लिए मर्यादा है; लेकीन वास्तव में वो गुनाह है| वासना के कुत्ते को अगर गोस्त मिले, तो वह आत्मज्ञान के एक कण के लिए रिरियाता है|
तुम्हारी आँखों में निर्ममता है और तुम्हारी वासना ही है, जिसे तुम समझते हो की तुम लोगो के साथ दुःख के भागी होने जा रहे हो|
जिनके लिए ब्रम्हचर्य मुश्किल है, उन्हें यह छोड़ देना चाहिए|
नीत्शे (जरथुस्त्र ने कहा से उद्घृत)
न्यायधीश कहता है हत्यारा लूटना चाहता था| यह गलत बात है| हत्यारे की आत्मा हत्या करना चाहती थी, लूट नहीं| वह छुरे से मिलने वाली ख़ुशी के लिए तड़प रहा था| लेकिन उसकी कमजोर नजर में यह बैठ गया, खून तो इसलिए हुआ की उसके पीछे लूट या बदले की धारणा थी| यह तर्क उस भयभीत आदमी के दिमाग में बैठ जाता है| इसलिए वो हत्या के बाद लूट लेता है| यह आदमी क्या है? एक बीमारी का ढेर|
नीत्शे (जरथुष्ट्र ने कहा से उद्घृत)

Tuesday, June 22, 2010

चाय हो जाये !

चाय की महिमा से सायद हि कोइ नावाकिफ हो। इन देवी के महिमा गान मे अपने राजर्षी जी भी हाल ही मे योगदान दे चुके है। प्यार मे भि उपस्थित रहती है, तकरार मे भि। दोस्ती मे भि और दुश्मनी मे भि। स्वागत मे भि, दुत्कार मे भि। समय बचाना है तो चाय, समय गुजारना है तो चाय। घूस देना है तो चाय, घूस खाना है तो चाय। दोस्ती करनी है तो चाय, दोस्ती से बचना है तो चाय। दिमाग काम कर रहा है तो चाय, दिमाग काम नहि कर रहा तो चाय। पधारे है तो चाय, विदा हो रहे है तो चाय। काम करना है तो चाय, काम करवाना है तो चाय। धोखा दिया है तो चाय, धोखा खाया है तो चाय। परेशान है तो चाय, खुश है तो चाय। जीवन भर के निर्णय चाय के साथ, निर्णय नहीं ले पा रहे तो भी चाय के साथ| अमीर है तो चाय पियेगा, गरीब है तो चाय हि पी सकता है। हमारा ऐसा कोई महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण एवम व्यर्थ से व्यर्थ क्षण होगा जीवन का जो चाय की बेखबरी से गुजर गया हो। हाला कि चाय एक ऐसा पदार्थ है जो उप्रोक्त् किसी भि मौके मे लेने योग्य नहि दिखता। और गर्मी के ऐसे मौसम मे तो बिल्कुल नही। फिर भि हम सबसे ज्यादा येहि पेय लेना पसन्द करते है। शायद ९०% आबादी ऐसी होगी जो चाय पीना दिन मे एक बार से ज्यादा पसन्द करती हो। और शायद इतने ही प्रतिशत ऐसी आबादी होगी जो दिन मे - चाय तो बिना खयाल के हि पी जाती हो। और अगर आप दिन मे चाय लेते है तो समझिये कि घन्टे तो आप रोजाना चाय को देते है, जो कि सामान्यत: लोग अपने जीवन साथी को भि देने से कतराते है। अन्य पेय की तरह, चाय के इतने कट्टर शत्रु भी नही है दुनिया मे। अपने बाबा जी भी तो कुछ खास विरोध नही करते, चाय का। कभी कभी तो लगता है जैसे अपनी रगो मे खून नही चाय दौड रही हो।
कारण क्या है भाई इनकी इतनी लोकप्रियता का?
पहला सबसे बडा कारण आर्थिक: तमाम झन्झावतो के बावजूद मोहतरमा की कीमत वही की वही। दूध का दाम बढ गया शक्कर का दाम बढ गया, गैस के दाम बढ गये, पैकिन्ग के दाम बढ गये, पीने वालो की आमदनी बढ गयी लेकिन ये वहीं की वहीं| आप बिना जेब हल्की किये १०० लोगो को भी चाय पिला सकते है।
दूसरा बडा कारण:
किसी दूसरे पेय की अपेक्षा चाय पीने में ठीक उतना ही समय लगता है जितने से उपरोक्त कामों को करने के लिए उचित माहौल कायम हो जाये| उतना ही समय लगता है जितने में मिलन होत जाए, व्यर्थ समय भी जाये, आदि|

Saturday, June 19, 2010

An Idealist view of Life

Man's helplessness in the presence of nature makes him look up to supreme sources of power and blessings. We adopt the religion for it's practical efficiency and not for getting in to relation with the supreme spirit as the embodiment of the highest perfection. .............. Religion has been used from the beginning for carrying on the social organization and conserving the secular values, for religious sanctions seem to be more effective for keeping men more loyal and law-abiding than prisons and police courts. Religion is the device to give an emotional stimulus to the socially beneficent activities.

S. Radhakrishnan
An Idealist View of Life

Friday, June 18, 2010

स्वच्छंदता की क्रांति

जहाँ तक है क्रांति का सवाल है, विकसित देशो का विषय नहीं रही| या रही भी तो शायद इतनी सूक्ष्म की अपनी नग्न आँखों में बैठती नहीं (हालाँकि मुद्दा पूर्णरूपेण बौद्धिक है)| जब वो विकसित देशो का मुद्दा नहीं, और हमारा देश भी विकसित नहीं, तो क्यों मुद्दे का स्वदेशीकरण कर डालें| हमारा देश आज कल आर्थिक क्रांति के साथ साथ, या तो राजनैतिक या बौद्धिक कारणों से, और भी बहुत सारी क्रांतियों से जूझ रहा है| जूझ इसलिए रहा है क्यूंकि किसी भी क्रांति का समाज के जिस उचित वर्ग को लाभ मिलना चाहिए, वो नहीं मिलना है ये भी समय समय पर सुनिश्चित होता रहा है| जिस महत्वपूर्ण क्रांति की चर्चा हम करेंगे वो क्रांति हमारे, कथित युवा वर्ग द्वारा चलायी जा रही है| यू तो मर्द और घोड़े कभी बूढ़े नहीं होते ये हमें युवा होने का दावा ठोंकने वाले बूढ़े बता चुके हैं| अतः उन्हें इस युवा वर्ग में सम्मिलित करके घोड़ों का अपमान नहीं करना चाहते| और इस क्रांति को ही कहते हैं स्वच्छंदता की क्रांति| आश्चर्य जनक रूप से कोई भी क्रांति सिर्फ राष्ट्रीय हितो पर केन्द्रित हो जान नहीं पड़ता| अन्यथा १०० में ४० लोग भूखे और नंगे रहे होते| भूख शारीरिक के साथ साथ व्यापक किस्म की नग्नता समेटे चलती है|
अन्य और भी गंभीर विषय पेय जल की उचित व्यवस्था, जनसँख्या नियंत्रण, जंगलो की अत्याल्पता एवं कचरे का उचित प्रबंधन ऐसे उपेक्षित हैं जैसे बच्चे अपनी सौतेली माँ से भी रहते होंगे| देश के शिक्षित एवं प्रशिक्षित वर्गों के लिए गाड़ी बंगले ही सबसे प्राथमिक एवं महत्वपूर्ण क्रांतियाँ हैं एवं वही संभ्रांतता की पहचान भी| हमारे हिन्दू धर्म के देवी देवताओं की भ्रष्ट्रता डॉक्टरों को विरासत में मिली है, क्यूंकि डॉक्टर भी भगवान का ही रूप होता है| जो भी व्यक्ति/वर्ग भगवान् का दर्जा पा जाता है, उन्हें गंभीर से गंभीर पाप करने का प्रमाण पत्र प्राप्त हो जाता |
कुछ दिनों तक तो भ्रस्टाचार का सफाया भी क्रांतियो का लक्ष्य हुआ करता था| लेकिन वो शायद बच्चो के नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम का एक विषय था| क्युकि हमारी उम्र बढ़ने के साथ ही हमारी भ्रस्टाचार के साथ विलेयता बढ़ गयी लगती है| बहुत संभव है की बच्चो के पास भ्रष्ट होने वाली संभावनाओ की कमी रहती है| उनके आस पास की दुनिया भ्रस्टाचार रहित होती है| उम्र बढ़ने के साथ बच्चे की प्राथमिक पाठशाला (घर) में कुकर्मो का ग्रन्थ पाठ्यक्रम में आने लगता है| जब बच्चा देखता है की उसकी मां सिर्फ उसकी या उसके भाई बहनों की ही मां है| पिता आदर्श वाची ढोंगी है| और कुछ इस तरह चीजे चल निकलती हैं जैसे समझौता एक्सप्रेस|
विषय से भटकना अच्छी बात नहीं इसलिए चलते हैं फिर से अपने विशेष मुद्दे पर जिसका नाम है स्वच्छंदता| गौर से देखा जाये यो ऐसा प्रतीत होता है की मेरी बाते गैर जरूरी हैं| क्युकी समाज में लगभग हर प्रकार की स्वच्छंदता प्राप्त है| नैतिक नियमो के विपरीत वाली ही सही| उदाहरंतः अगर बच्चा अपने पडोसी को गाली लगता है तो पिता की छाती फूल जाती है| बड़ो का सम्मान करने से उनकी आज्ञा पालन से मां की नाक कटती नजर आती है| लेखक अगर शोध क्षात्र है एवं क्षात्रव्रत्ति पता है तो उसके घर से ही पहला प्रश्न उठता है, 'ऊपरी कमाई कितनी हो जाती है?'|
तो भ्रस्टाचार, अपराध, अज्ञान, अपमान, अराजकता, अकर्मण्यता आदि की स्वच्छंदता तो हमारे घोर राष्ट्रवादी संगठनों को भी स्वीकृत है| जो स्वच्छंदता शारीरिक संबंधों या प्रेम प्रसंगों की है, बस समस्या वही पर है| संस्कार तो हो नहीं सकता इन विषयों का, सामाजिक नियम या धार्मिक कारण कहे किसी वजह से इस स्वच्छंदता की स्वीक्रति इस समाज में इस क्रांति के क्रांतिकारियों को भी नहीं| एक असाधारण तथ्य ये की जो लोग इस क्रांति के धुर विरोधी है वो हो इसके सबसे बड़े "शोषक" हैं| गुजरात एवं उडीसा के दंगे इस शोषण से उपजे कुछ ऐसे ही घाव है| एक अनोखापन इस क्रांति का ये की इस विषय पर जितनी भी और जिस भी बौद्धिक स्तर की चर्चा हो, इसके विरोध में ही होती है| सरे क्रांतिकारी अकेले मोर्चा सम्हाले हैं| बता भी नहीं सकते की वो क्रांतिकारी है| सभी सिर्फ अपने लिए ही ये स्वच्छंदता चाहते हैं, किसी और के लिए नहीं| कोई भाई चाहता है की उसे अनेक स्त्रियों के साथ व्यभिचार की स्वतंत्रता तो हो लेकिन उसकी अपनी बहन का चचेरे भाई से बात भी करना खटकता है| संघर्ष में आहुति सभी दे रहे हैं, बस आप आँखें बंद कर लो| आप भी आहुति सम्हाल के दीजिये, अगर इन्होने आप को आहुति देते देख लिया तो, दुश्चरित्रता की होली मनाने में क्षण भर न लगेगा|
इस स्वच्छंद समाज में चरित्र निर्माण आप के सामजिक सरोकारों, आप की समाज या राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी, इमानदारी, न्यायप्रियता, दया, करुना, समर्पण, दूसरो का सम्मान करने से नहीं होता| बल्कि इससे होता है की आप विपरीत लिंग के प्रति व्यवहार कुशल तो नहीं हैं| "पापी है, अधम है, घूसखोर है, मां बाप को घर से भले ही निकला हो लेकिन चरित्र वान है|" ऐसा कहने वालो से शायद आप का भी पाला पड़ा हो|


नोट: यह लेख जल्दबाजी में लिखा गया एवं अधूरा है| इसकी अंतरिम प्रति जल्द ही आएगी| मेरा उद्देश्य एक प्रेम कथा लिखने का है, लेकिन पाठक को मेरी प्रेम कथा पढने के लिए तैयार करने के लिए हो सकता है ऐसे ही कुछ और छोटे मोटे ब्लॉग लिखने पड़ें|
राम

Wednesday, June 16, 2010

मैं विरहन मेरा यार मिला दो

जोगन दी अंख ते झूठ कहे, नि वो कौन जो रूठा यार मनावे |
ऐसा कोई मिल्या ढूंढ थकी, जे ज्ञान का मन वे दीप जलावे ||

मेरी अंख थकी तक तक राहां, मेरा जोगी मेरे द्वार न आवे |
नच नच पावां पड़ गए छालां, उस बैरी को ये स्वांग न भावे ||

जोगी जिस दिन मान बढ़ावेन्गे, सर सदके उस घड़ी जावांगी |
मोसे पिया जो कुछ न बोलेंगे, मैनु अंसुवन नदियाँ बहावंगी||

अंख रखके जोगी दे कदमां नु, पलकन पग धूल हटावांगी|
न पूछूंगी, न ही बोलूंगी कुछ, सर सदके यार नावावंगी ||

मैं बाट मक्के दी क्यों जोहूँ, मेरा जोगी जो मेरे घर आवे|
जब वोही बसा है तन मन में, मोहे पूजन अर्चन क्यू भावे||

छवि दिखला मोरे सांवरिया, इन नैनन की अब प्यास बुझा|
मैं कूकत बन कोयल पपिहा, दरश दिखा मोहे अब न सता||

तेरि याद में रो अँखियाँ सूखीं, मेरि ईद आई अरु न होली |
ख़त भेज मोहे कोई आस बंधा, त्यौहार से भर मेरी झोली||

होके बावरिया तेरि चाहत में, भई जोगन मैं सुध बुध भूली|
जब प्रेम पिपास जगी मन में, तेरि यादां मैं बन बन डोली||

तोसे विनती इतनी सी प्रियतम, मेरि जान रहे दर्शन दीजो|
जन्नत चाहु न ही स्वर्ग प्रिये, मोहे ऐ ही जनम अपना लीजो||

जो मैं हार गयी कल जीत गया, मोहे माफ़ मेरे जीवन कीजो|
मोरी जान मोरा दिल अर्पण है, इस जोगन को ..............||

राम

Motivated from Heer Varish Shah & Ameer khushro

Tuesday, June 8, 2010

कहता है जो, बोल पाए;
बोले जो वो, मर्म जाने;
जाने जो वो बोले भी क्या;
गर बोले तो व्यर्थ सुझाये |

Ram

Friday, June 4, 2010

समाज-सुधारक और उनके द्रष्टान्त

बहाना कोई भी हो दिन में कम से कम एक बार तो लाइब्रेरी जाना हो ही जाता है | इन सभी कारणों में वो कारण तो बिलकुल ही नहीं होता जिसकी आशा एक छात्र से की जा सकती है | क्योंकि वो सभी आवश्यक पुस्तके जो अपने काम की हैं वो लाइब्रेरी में तो हैं ही नहीं, क्योंकि वो तो हम निर्गत कर के अपने दफ्तर ले गए हैं | परन्तु जब कोई बहाना नहीं होता लाइब्रेरी जाने का तो सोना सबसे अच्छा कारण हो जाता है | कसम उस खुदा की जिसका नाम लेके लोग क़त्ल -ऐ -आम मचाते हैं या उन महादेव की जिनका जयकारा लगते हुए लोग सामूहिक बलात्कार जैसे संगीन पुण्य के काम कर जाते हैं, हमें लाइब्रेरी में नींद बड़ी जबरदस्त आती है |
लेकिन कभी कभी घोर उदासीन इंसान पिछले जन्मों के पापो का प्रायश्चित करने के लिए दैनिक समाचार पत्रों पर कृपा जरूर बरपता है | विज्ञानं विषय से शोध छात्र होना कारण हो या अंग्रेजियत का बुखार, सारे दिन की खुमारी, अपने हिंदी समाचार पत्रों की देश भक्त रुपी दावा ही उतारती है | खैर ऊल जलूल बातें छोड़ कर मुद्दे पर आते हैं |

रोज बाबा रामदेव के नियमित योग की भांति जब हम अपना प्रिय समाचार पत्र "अमर उजाला (इसका नाम अगर "घनघोर अँधेरा" होता तो ज्यादा जंचता और पाठक भी ज्यादा समेट सकता था |)" पढ़ रहे थे | तो दो जगहों पर अपनी नजर ठिठकी| वैसे तो आज का इंसान इतना आध्यात्मिक और शांत चित्त हो गया है की अपने गाँधी बाबा होते तो शायद वो भी दो-चार बहुओ को ठिकाने लगा, दस-बारह लोगो की अंतड़िया बाहर निकाल, और चूँकि सम्मानित व्यक्ति थे तो सौ-दो सौ करोड़ का घोटाला कर के ही राष्ट्र पिता बने होते |आज कल के सौहार्द पूर्ण माहौल में तो आत्मा को झकझोरने वाली घटनाओ की पुष्प वर्षा सी होती रहती है | तो नजरे ठिठकने के दो कारण ही क्यों मिले ? सवाल महत्वहीन परन्तु स्वाभाविक है | तो कारण ये है कि :

चलो मान भी ले कि समाज में धर्म से ज्यादा विस्तृत अपराध के पीछे अज्ञान-वेद (वेद क्रम का पांचवा और शायद अंतिम महत्वपूर्ण ग्रन्थ) ही बड़ा कारण है | और ये अपराध-यज्ञ लोगो द्वारा अंतिम वेद के जीवन पर्यंत आत्मसात करने के कारण ही सर्वाधिक प्रचलन में हैं | परन्तु जब कोई व्यक्ति इस वेद को त्याग कर ज्ञान रुपी निम्नता को प्राप्त होता है और हर किस्म के प्रयासों से समाज को तुच्छ परन्तु सौहार्द पूर्ण नयी दिशा देने में पारंगत होकर भी, अजीब तरीके की बाते करना सुरु करता है तो हम मूर्खो का अचकचा जाना स्वाभाविक भले न हो, अकारण भी नहीं है | उदहारण चाहे कलिकी अवतार राज ठाकरे की रामायण ही क्यों न हो |

मुद्दा आज के अच्कचाने का है | हाँ तो आते हैं अपने परम प्रिय अमर उजाला के अंतिम प्रष्ठ की कहानी पर: जानी मानी लेखक, जिनकी पुस्तकें पढ़कर मैं धन्य हुआ, बुकर पुरष्कृत, सामाजिक कार्यकर्ती, अरुंधती मैडम कहती हैं "मओवादियो का समर्थन करुँगी चाहे जेल हो जाये"| अरे मैडम आप मओवादियो के लायक कोई उत्पादक काम तो नहीं करती | आप वो ऐसा साहित्य लिखती हैं जिसकी मांग बाजार में है| मुझे नहीं याद आता की आप की किसी पुष्तक के जिस भी हिस्से पे मेरी नजर पड़ी हो उन्हें अनुभव कर के, घातक और जान लेवा हथियार उठानी की आवश्यकता जान पड़ी हो | बल्कि संभव है मेरा ह्रदय कभी कभी मर्माहत ही हुआ हो| मैंने सुना है माओवादी लेख बहुत ही भड़काऊ और पागल पन से ग्रस्त होते हैं, जिन्हें पढ़ के लोग अपने घर-परिवार, इंसानियत, धर्म को भूल/त्याग कर, मासूम जनता को क़त्ल करने के लिए ऐसी बंदूकें उठा लेते हैं जिनकी कीमत की समता मेरे सम्पूर्ण परिवार की पञ्च-वर्षीय आमदनी भी नहीं कर सकती | आप उन्हें ये हथियार मुहैया कराती हो मुमकिन नहीं लगता | लेकिन कुछ आप के सम्द्रष्ट लोग जो समाज सुधर में बड़ा विश्वास रखते हैं शायद उन्हें लगता है की जिन पैसो से इन गरीब, परिश्थिति जन्य अज्ञानी (हमारी महान सरकार की देन) लोगो को हथियार पुरष्कृत किये जाते हैं उन्ही से इनकी जीविका नहीं चल सकती है (भाई जीविका चल निकले तो किसने हिटलर बनना है, वैसे भी हिटलरो का आज कल स्कोप नहीं है.) | मुद्दा गंभीर है और मैं उपयुक्त दूरदर्शक नहीं | लेकिन इन परिष्ठितियो के लिए हमारी परवरिश और युवा वर्ग की अकर्मण्यता (जिसे लोगो का खून बहाना स्वयं का पसीना बहाने से ज्यादा उचित दिखाई पड़ता है |) सबसे ज्यादा जिम्मेदार दिखती है| और जब देश/समाज आतंक की भयंकर बीमारी से ग्रसित है ऐसे में मैडम का उपरोक्त कथन कोढ़ में खुजली से कम नहीं है | अगर आप समाज की मानसिकता सही दिशा में बदल सकती हैं, तत्पश्चात बहुत सारे अंधभक्त उत्पन्न होना स्वाभाविक है (हम हिन्दुस्तानी तो राम, कृष्ण, शिव, अल्लाह, बुद्ध, ईशा के भी अंध भक्त हो जाते हैं |), तो बहुत संभव है की आप से प्रेरित लोग इस दिशा में भी स्वीकृति बना दे |
स्वच्छ समाज के निर्माण के लिए हथियारों की आवश्यकता नहीं | सुरक्षा गार्ड के हाथ में हथियार शोभा देते हैं ताकि उनसे डरा कर समाज के उचक्कों को डपट के रखा जा सके | भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, उन्माद उसका स्वाभाव है, और उन्माद विनाश का कारक होता है | विनाश के वाहको के हाथ में सुदर्शन शोभा नहीं देता | गाँधी बाबा मूर्ख नहीं थे जो बिना छड़ी चलाये सम्पूर्ण भारत को स्वतंत्रता का सर्वोच्च अधिकार दिला गए |

दूसरा मुद्दा उतना गंभीर नहीं लेकिन है महत्वपूर्ण :
चलते हैं अपने दैनिक ग्रन्थ अमर उजाला के प्रष्ठ १४ पर : पुरी शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी महाराज | बूढ़े हो गए हैं, एक पाँव शमशान पर और दूसरा शाही खजाने पर हमेशा रखते हैं | पता नहीं १०८ लगाते हैं या १००८ या कुछ और| ये बड़ी महत्वपूर्ण संख्याये हैं इन संख्याओ को अपने नाम के साथ तीन ताल कराने के लिए पूज्यनीय, प्रातः स्मरणीय सर्वस्व त्याग करने वाले, समाज कि शोभा और उदहारण कहलाने वाले संत-महात्मा; खूनी संघर्ष करते हुए सुने-सुनाये जाते हैं | धन्यवाद् हमारे स्वार्थी/सुविधा भोगी समाज को कि इन्हें माथा तो टेकता है लेकिन सुनता नहीं या कहे ज्यादा भाव नहीं देता|
आज ही हमें पता चला कि इनकी माँ भी, हर मूढ़ हिन्दू कि माँ कि तरह एक इंसान नहीं गाय ही थी/है | कहते हैं "गोहत्या रोकना हिन्दू समाज की प्राथमिकता"| वैसे तो माँ बाप की हत्या का आज कल चलन है, लेकिन जो चलन है उसमे माँ/बाप इंसान होते हैं गाय/बैल नहीं | इसलिए मेरी समझ वाले माँ /बाप की हत्या का पुन्य कार्य जिसके दिमाग में आ रहा हो उन्हें घबड़ाने की जरूरत नहीं, महाराज जी के सुवचन उनके लिए नहीं |
बात जितनी अटपटी है और असुविधाजनक है उतने तो हठ-योगासन भी नहीं होते होंगे | मेरी असुविधा ये है की ये वाकई गो हत्या रोकना चाहते हैं, किसी भी प्राणी की हत्या रोकना चाहते हैं या अपनी सोसिअल वैलुस रखने के लिए समर्थन जुटा रहे हैं | इनकी अपील समाज से नहीं है | उनसे है जिनके माँ/बाप गाय/बैल हैं | शुक्र है हमारे देश में ही ऐसी किस्म प्रचलित है, और छोटे मोटे बलवो के आलावा कुछ ख़ास उन्नत यज्ञ नहीं कर सकी | वरना क्या पता किसी की माँ मुर्गी होती, किसी की नागिन | समाज कैसा होता कहना मुश्किल है लेकिन कह सकता हु की धर्म गुरुओ का धंधा बड़ा उन्नत होता |
मेरा तात्पर्य यह है कि समाज में वैसे भी बहुत सारी कुरीतियाँ व्याप्त हैं जो कि और भी बड़ी एवं जघन्य हैं| आप भगवान के तुल्य हैं | उन कुरीतियों पर पहला ध्यान दे, बाकि समरूपता धीरे धीरे अवश्य आ जाएगी | माँ को माँ रहने दे और जानवर को जानवर | इंसानों में बहुत भेद किये, अब जानवरों में भेदभाव और द्वेष न फैलाएं | आप किसी समुदाय के धर्म गुरु हैं आप अपने समुदाय में किसी विशेष जानवर की हत्या रोक सकते हैं | लेकिन किसी दूसरे समुदाय का धर्म गुरु अगर उसे उतना ही गैर जरूरी समझता है, जितना कि आप दूसरे जानवर को समझते हैं तो आप के इस तरह के वक्तव्यों से समाज के सामने आप की महत्वाकांक्षा से बड़े संकट आ सकते हैं |

बाते बहुत हैं लेकिन अभी बस इतना ही | किसी दिन समय महाराज कि आज्ञा मिली तो इस ब्लॉग में विस्तार और त्रुटि-संसोधन इंशा-अल्लाह जरूर फ़रमाया जायेगा |