Wednesday, December 19, 2012

My Fundamental Rights

Being an Indian, a pure Aryan Blood, I posses the fundamental rights listed below 

1) To acid attack a women for not copulating with me.
2) To kill a women for not getting enough dowry from her father.
3) To force women for female foeticide and kill her before she is born.
4) To coerce women for prostitution.
5) To rape and ravage her to cool the fire of lust.
6) To kill her any time for whatsoever reason. 

I religiously practice these rights and this way I entrust myself in the service to my Great nation and upraise MY DIVINE CULTURE AND ORDER OF MY GOD TO ME.     

Thursday, September 13, 2012

पशु मानव

राजस्थान के सीकर जिले में एक स्थानीय अदालत ने भैंस के साथ यौनाचार करने के आरोप में एक व्यक्ति को पांच साल की सज़ा दी है (बीबीसी हिंदी में प्रकाशित एक खबर का पहला वाक्य).

सरसरी नजर में तो ध्यान ही नहीं गया। यौनाचार, कैद, आदि सब ठीक ही था। लेकिन बेशर्म नजर अचानक भैंस पर चली गयी। अचानक ठहर जाना पड़ा। अंध-धार्मिक होता तो भैंस या अभियुक्त या दोनों के लिए ऊपर वाले से दुआ या अभिशाप की आश लगाता। आज कल की युवा पीढी एवं कुंठित वृद्धों के जिगर, फेसबुक, से हाल कहने का विचार भी आया, किन्तु लगा ये कुछ ज्यादा ही हो जाएगा, कितने लोग हजम कर पायेंगे, लोग क्या सोचेंगे क्या सोचता है, यही करता रहता है क्या, दकियानूसी विचार क्यों आ रहे हैं, मैं भी सोच सकता हूँ, मेरी क्या गलती अगर लोगो की लग जाती है, शेयर करने से क्या होगा, आज कल तो "असीम त्रिवेदी जी" पॉपुलर हैं सोशल मीडिया पर, जस्टिस तो हो चुका अब और क्या करना है, मैं कौन होता हूँ इस बकवास में पड़ने वाला, "भैंस के आगे बीन बजाते सुना था", ये सब करने की क्या जरूरत थी बन्दे को? क्या वाकई जरूरत नहीं थी, मजबूरी रही हो सकती है, पिस्तौल सर पे रही हो सकती है, शर्मीला था?? नहीं-नहीं ऐसे कैसे कह सकते हैं, मनोरोगी हो सकता है, लेकिन मनोरोगी भी प्रजाति तो पहचानता होगा, दीवाल, पेड़, तकिया... क्या?? वाकई!! सांप भी मर गया लाठी भी न टूटी, इतना स्मार्ट??.......... ये हो क्या रहा है मुझे, साला(अपरिप्रक्ष्य)?

बहुत देर तक जीवन सामान्य रहता है। फिर अनजाने में वो विचार लहराया, 'कुछ २०० वर्ष पहले यूरोप के बुद्धिजीवी वर्ग में "क्या महिलाएं भी इंसान हैं?" को गंभीर चिंतन का विषय माना जाता था, बिना परवाह के कि उस समय भी कई महिलाएं स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, विवेकशील, संभ्रांत या आलीशान जीवन जीती थीं'. और न चाहते हुए भी मेरे सर पे फिर बीन बजने लगा और मैं पागुर करने लगा। मुझे नहीं मालूम ये दफा ३७७ क्या होती है। लेकिन एक बात समझ ना आयी। भैंस का शोषण हुआ है सजा तो मिलनी ही चाहिए। उसी भैंस का दोहन करना, बंधक बना के रखना और जीभ की हवस मिटाने के लिए क़त्ल करना शोषण की श्रेणी में क्यों नहीं आता? अगर आता है तो फिर इस पर कौन सी दफा लागू होती है? अगर कोई सी लागू होती है तो जिसने जिसने भैंस का दूध पिया है या मटन मारा है, उसके लिए क्या उपहार है? भैंस-माता क्षमा करना मैं भी तेरा दूध पी के बड़ा हुआ हूँ। जरूरतों की उचित व्याख्या करो.... साला(अपरिप्रक्ष्य). भरे पेट लोग गोबर नहीं खाते। गोबर खाने से स्वास्थ्य बढ़ता है। 

एक बात कहूं? हम सभी तुगलकों को मनोचिकित्सक की जरूरत है...... नहीं-नहीं ये तो हमारे देश की परंपरा ही नहीं है, आर्य हैं हम पगलाते नहीं, जेल ही बढ़िया रहेगा।



http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/09/120912_man_sex_with_buffalo_pn.shtml

Friday, September 7, 2012

डॉक्टर भगवान की paracetamol

बस एक हफ्ते के अन्दर मुझे असिस्टेंट कमांडेंट की शारीरिक दक्षता परीक्षा के लिए दिल्ली जाना था. महीने भर से उसी का प्रयास कर रहा था और पूरी तरह से तैयार भी था. हिन्दुस्तान में रहने वाली युवा पीढी जानती है कि केन्द्रीय सरकार के अधीन नौकरी पाने के लिए कितने पापड बेलने पड़ते हैं. मैं उज्जवल भविष्य से बस एक कदम दूर अपने माता - पिता के सपनो के महल को साकार कर रहा था. अचानक एक हफ्ते पहले मुझे हल्का सा बुखार आने लगा, दूसरे दिन तक ठीक नहीं होने पर नजदीकी मेडिकल स्टोर से दवा ली तो साथ में एक हफ्ते आराम करने की सलाह भी मुफ्त मिली थी. एक हफ्ते का समय न था मेरे पास तो अगले दिन डॉक्टर के पास (इलाहाबाद) शहर के एक प्रसिद्द अस्पताल जा पहुंचा. सरदर्द, उल्टी, दस्त, बदन दर्द कुछ भी नहीं था. डॉक्टर की २ मिनट की तिरस्कार पूर्ण द्रष्टि पाने के लिए 200 रूपये फीस दी. और उस दो मिनट में उसने कुछ रटे हुए से  प्रश्न बुदबुदाए और बिना मेरी बीमारी के बारे में जिज्ञासा के तमाम तरह के टेस्ट लिख डाले. ८ किस्म की खून की जांच, मूत्र की जांच और ultrasound ( लगभग 2000 रुपये). साथ ही कुछ दवाइयां भी लिखीं (450 रुपये). मैंने उसे अपनी सारी परिस्थिति बतायी किन्तु कोई प्रतिक्रया न पा सका. अगले दिन तक मेरी स्थिति और दयनीय हो चुकी थी. मैंने कुछ जागरूकता दिखाई तो पता चला कि उन दवाइयों में से कोई गैस की है कोई सर दर्द की और कोई किसी और मर्ज की  किन्तु बुखार की एक भी दवा न थी. दूसरे दिन डॉक्टर मिले नहीं किन्तु सारी रिपोर्ट नकारात्मक थीं (जिसका मुझे पूर्वाभास था), हालत और बिगड़ी, सर्दी जुकाम, खांसी और सर दर्द सब सुरु हो गया, तीसरे दिन डॉक्टर से मिला (200 रूपये फीस फिर) तो उसने कहा "कोई खास बुखार थोड़े था तुमको, paracetamol नहीं ले सकते थे?"

आज शारीरिक दक्षता परीक्षा की तारीख है. दिल्ली न जा कर शहर से दूर अपने गाँव में, मैं बिस्तर पर लेटा हूँ. मेरी माँ मेरे लिए खिचडी बना रही है और दरवाजे के बाहर रखी कचरे की टोकनी में पडी मेरी वर्षों की मेहनत पूरे घर में दुर्गन्ध फैला रही है....

Sunday, August 19, 2012

....

शोध क्षात्र (फेय्न्मन से): मैं रिसर्च स्कॉलर हूँ, मेरे पास पढने-लिखने-समझने-विचार करने का समय नहीं. वो जमाने लद गए जब तुम अन्वेषण (यथार्थ खोज) भी करते थे और लफंगे बाजी भी.

Tuesday, August 7, 2012

नायक नहीं .....

लम्बे समय तक मुझे लगता था कि आजादी के बाद देश में शायद ही कोई महानायक हो सकता है. वैसे, जयप्रकाश नारायण ने मेरे जन्म से पहले ही मुझे झुठलाया था. किन्तु, हाल ही में देश में कुछ लोगों ने  सुनहरा मौका गँवा दिया. अगर कोई भागे न होते, और कोई उठे न होते तो वो शायद महानायक होते. जीवन की लिप्सा ने अमरत्व पर विजय पायी और कल के उद्धारकर्ता आज धोबी के कुत्ते हो गए. कल दिल दे दिया था ..... कल वोट न दूंगा.  माफ़ करना जतिन.... बस ऐसे ही हो गए हम. 

Monday, June 18, 2012

Pseudo-growth

As far as we see in our near past the economical growth glimpses to be dynamic and hiking, but the consistency in this hike is not an easily achievable task, as Indian government presumes. Though the gross national transaction has enhanced, the gross national happiness or health has trampled. Simple conclusion on the nation's development can be drawn by looking at the ratio of population having health insurance to the gross population. Electronic gadgets are replacing the nutrients in the porringer. The gross transaction capacity is pseudo-improving the livelihood of urban areas, but devastating the basic infrastructure of rural. Government is incapable of or is unwilling to store the cereal, and preferentially buying swine feces. The infrastructural improvement is all about destruction of local market and construction of super-malls. The level of education is drowning and morality has reached to the bottom of legerdemain. The pseudo-developing generation is basically troop of sailors and money-venereal. In the name of science our progressed is strengthening adulteration in edibles and potables. Government funds to defense are 40 times more then research and education; drainage is 100 time more then water harvesting. We are 1/6th of the world population and 82 years have passed to get a Nobel in science. 65 years have passed to independence and nation still don't have notion of nation and it's borderline is different from so called line of control.

Faith in humanity is loosing.... Knavery has become the best policy in the nation of Gandhi...

Conclusion: I am quite scared of nation's pseudo-growth, and If Government  doesn't come out of it's delirium, we will be Zimbabwe, earliest.

(Comment to Public private partnership)
Seriously incomplete..

Tuesday, June 5, 2012

World Arm Export (%)

USA              47
Russia          10
France         10
UK                09
Germany      09

Could you tell me, which nation would be the best friend of these nations....??

 http://www.youtube.com/watch?v=EZflY6z7jZQ&feature=relmfu

Sunday, June 3, 2012

सुसांस्क्रतिक जीवन यात्रा


माँ के पेट में आने से पूर्व मैंने ईश्वर से कितनी विनती की थी कि जिस भूमि में धर्म ग्रंथों के अनुसार वो खुद जन्म लेने के लिए तरसता है, मुझे उसे अपनी जन्म भूमि नहीं बनाना. लेकिन शायद मेरे कर्मों का लेखा जोखा सिमटकर यहीं धकेलता था सो शायद ईश्वर के हाथ में भी मेरे संतप्त आंसुओं को पोछने की शक्ति नहीं बची थी. खैर जन्म लेने से पहले मैं आप लोगों को अपना परिचय बता दूं. मैं इस राष्ट्र और संस्कृति की एक सामान्य संतति हूँ, जो कभी बेटी होती है तो कभी बेटा, कभी लडकी तो कभी लड़का, कभी बहू तो कभी पुरुष, कभी माँ तो कभी पिता, और अंततः कब्र पर पैर लटका कर बैठे वृद्ध. इन सभी अवस्थाओ से गुजरते हुए मेरा एक लक्षण स्थिर है, मेरा दुर्भाग्य. ये रही मेरी सांस्कृतिक जीवन यात्रा....


आज मैं एक अजन्मा शिशु हूँ और चंद महीनों से अपनी माँ के गर्भ में चैन की नींद सो रहा हूँ. यूं तो मैं अनायोजित गर्भ हूँ लेकिन हूँ माँ का दुलारा. दुलारा होने के आभास के अलावा मुझे नहीं मालूम मेरे माता-पिता ने मेरे भविष्य के बारे में क्या योजनायें बनाई हैं.

आज मेरी माँ कुछ विचलित है, मेरे पिता और घर के तमाम वृद्ध उसे मेरे लिंग पहचान के लिए डॉक्टर के पास ले जा रहे हैं. बहुत संभव है अगर मैं स्त्री जाति का हुआ तो मेरा इस जन्म भूमि पर सामान्य पदार्पण नहीं होगा. या तो मुझे साबुत निकाल फेंका जाएगा या टुकड़ों में मेरे शरीर के भिन्न अंग माँ के शरीर से जुदा होंगे. मैं अभी अजन्मा हूँ इसलिए मेरी पीड़ा विशेष महत्व नहीं रखती और निर्णय लेने का अभी मेरे पास अधिकार नहीं. इस कर्म में मेरी माँ को जो अपूरणीय शारीरिक और मानसिक क्षति होगी उसकी शायद किसी को फ़िक्र नहीं. भगवान का शुक्र है मेरी माँ अविवाहित नहीं अन्यथा इस संभ्रांत समाज में उसका जीना नामुमकिन हो जाता और मेरा पुरुष होना भी किसी काम न आता, मुझे जन्म से पूर्व ही अलविदा कहना होता. इस सारी प्रक्रिया में वो डॉक्टर भी सहयोगी होगा जो समाज सेवा की शपथ ले अपनी धन क्षुधा को मिटा रहा है.


आज मेरा जन्म हुआ है और मैं स्त्री हूँ. सारे घर में सन्नाटा पसरा है और हर चेहरा खिन्न है. मेरी माँ भी मेरे आने से दुखी है, इसीलिए वो परिवार के तमाम सदस्यों के कुपित शब्द बाणों को सहजता से ग्रहण कर रही है. मैं अपनी उस माँ की चौथी पुत्री हूँ, जिसके जीवन का एक मात्र उद्देश्य पुत्र को जन्म देना है. हालांकि मेरी बड़ी बहनें जीवित हैं लेकिन परिवार के सदस्यों का धैर्य जवाब दे रहा है और जन्म लेने के बावजूद मेरा जीवन खतरे में है. बहुत संभव है कि मुझे मार कर या जीवित दफना दिया जाए.
  
तमाम अभावों के बीच मेरी उन्नति हो रही है. शुक्र है कि माता-पिता की घोर लापरवाही के बावजूद मुझमें किसी प्रकार की शारीरिक अपंगता नहीं है. मेरी बाल्यावस्था मेरे सगे सम्बन्धियों और परिवार के परिचितों की हवस का शिकार है. मुझे नहीं मालूम कि किस प्रकार विरोध किया जाए जबकि मेरे माता-पिता मुझे उनका आदर करना और उनकी आज्ञा का पालन करना सिखाते हैं. इन व्यक्तियों के पास आते ही मेरी रूह सिहर उठती है. मानसिक रूप से प्रताड़ित मैं शायद ही इस जीवन में इस दुर्गति को भुला सकूं. जो भय और घ्रणा मेरे दिल में जगह बना रहे हैं, उनसे उबर पाना और जीवन को निष्पक्ष रूप से देखना शायद ही संभव हो.

इसकी तुलना में परिवार के तमाम सदस्यों का क्रोधित हो अकारण दिया गया शारीरिक दंड क्षुद्र मालूम पड़ता है. अक्सर मुझे मेरे अपराध का ज्ञान भी नहीं होता. घर हो या विद्यालय बड़ों से पिटना शायद नियति बन गया है. इनमें से किसी को अंदाजा नहीं कि मेरे स्वाभिमान, निर्भीकता, निर्मलता और गौरव को किस स्तर की क्षति हो रही है और भीरुता, झूठ, छल जैसे गुणों का व्यापक विस्तार हो रहा है. कभी भी किसी दंड के कारण की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं मिलती. चहुँ ओर नैतिक शिक्षा का जाल बिछा है किन्तु बड़ों में नैतिकता का एक भी लक्षण स्पष्ट नहीं होता बल्कि व्यवहार में मुझे भी अनैतिकता का ही पाठ पढ़ाया जाता है. फर्क नहीं कि मैं समाज के उच्च वर्ग से हूँ या निम्न मुझे विपरीत वर्ग से घ्रणा करने की सीख मेरे परिवार और वर्ग से प्राथमिकतः मिलती है.

आज मेरा किशोरावस्था में प्रवेश हो चुका है और मुझे स्त्री पुरुष के बीच भेद का ज्ञान भी. लिंग भेद से परे अब मुझे समाज के आधे हिस्से से अलग कर दिया गया है. घर के मर्द खूबसूरती से गीता-रामायण की सूक्तियों में पड़ोसियों के पतन की अभिलाषा पिरोते हैं. और औरतें अपने पराये के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान देती हैं. सिद्धांततः मुझे प्रेम, अनुराग, आदर, स्वाभिमान, निर्भीकता, ईमानदारी, सत्य और ब्रम्हचर्य की शिक्षा दी जाती है और व्यवहारतः घ्रणा, द्वेष, अपमान, दंभ, भीरुता, बेईमानी, छल और लम्पटता की. लडकी होने पर मेरा सम्बन्ध शोषित वर्ग से और लड़का होने पर शोषक वर्ग से होता है.

घर की चाहरदीवारी में कैद मैं, लडकी, सर्वप्रथम पुरुषों में दानव देखना, अविश्वास और कायरता का पाठ सीखती हूँ. मेरे हंसने बोलने और विचार व्यक्त करने पर पाबंदी होती है. घर से बाहर निकलने पर लोगों की कामुक द्रष्टि का शिकार, मैं, मांस का वो लोथड़ा हूँ जिसे बुद्धिजीवी से लेकर असभ्य तक लम्बी जीभ निकाल मौक़ा मिलते ही चट कर जाना चाहता है. चारो ओर से फब्तियों और छेड़छाड़ की बारिश जीवन पर प्रश्न चिन्ह लगाती है. दो कदम सुनसान में बढाने पर लोग छल-भय और बल का प्रयोग कर मेरे शरीर और आत्मा को तार तार करते हैं और मेरे पास इस बवंडर से लड़ने का न तो साहस रह जाता है और न समर्थन. चंद पलों के काल्पनिक सुख के लिए मुझे धूल में मिलाते हुए इस समाज के ठेकेदारों को ज़रा भी अफ़सोस नहीं होता.

घर से कदम बाहर रखते ही मैं, लड़का, अपने वातावरण से धर्म-जातिगत उन्माद, और कामुकता की शिक्षा पाता हूँ. मेरी रचनात्मक क्रियाशीलता और ऊर्जा समाज के किसी कृत्य में उपयोगी न हो सम्भोग चिंतन की आग में कूद जाती है और मैं उपरोक्त निकृष्ट कर्मों में समाज का हाथ बंटाता हूँ. और इस दुर्दशा की ओर जाने में मेरे माता-पिता की निर्देशन शून्यता और बुद्धिहीनता बढ़ चढ़ कर सहयोग देती है.

आज जब मेरा युवावस्था में प्रवेश हो चुका है और मुझसे घर परिवार और समाज की जिम्मेदारी उठाने की आशा की जानी चाहिए मुझे खुद का पेट चलाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है एवं अधिकांशतः अपने अभिभावकों पर निर्भर रहना पड़ता है. बेशर्मी से बढ़ती आबादी ने एक भी कदम चलना मुश्किल कर दिया है. संसाधनों की कमी से जूझ रही जनसँख्या को एक बार फिर रोटी कपडा मकान और अब पानी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. सरकार की गलत नीतियों ने समाज को मानसिक रूप से भ्रष्ट और आर्थिक रूप से नष्ट कर दिया है. राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां राजनेताओं की तिजोरियां भर रही हैं. वैज्ञानिक और शोधपरक विचारधारा की कहीं पूछ नहीं. सरकार को मूढ़ रट्टू तोते और निजी कंपनियों को फेरी वालों की जरूरत है, किसी दक्ष और विवेकशील इंसान के लिए समाज में कोई जगह नहीं.

एक युवती होना जैसे अभिशाप बन गया है. मेरी शिक्षा की गुणवत्ता मेरे चेहरे की सुन्दरता और शारीरिक बनावट से आंकी जाती है. मेरी कार्यकुशलता मेरे बॉस से मेरी अंतरंगता पर निर्भर होती है. तमाम लम्पट सहकर्मी मेरा सानिध्य पाने के लिए किसी भी स्तर तक गिरने को बेताब रहते हैं. मेरे शरीर की भेद्यता मेरे कपडे और सड़क के लुच्चे निर्धारित करते है. मेरे शुभचिंतकों की मेरे जीवन के प्रति उदारता मेरी किसी पुरुष के साथ अंतरंगता के व्युत्क्रमानुपाती है. हर तरह की योग्यता और स्वावलंबन के बावजूद शादी के लिए मेरी बोली लगाई जाती है. मेरी जैसी कितनी युवतियों ने शादी का मूल्य चुकाने के लिए अपना जीवन दांव पर लगाया है इसका कोई आंकड़ा न मेरे पास है और न सरकार के पास. ऐसे ही किसी वहशी को मेरे गले पहनाने के लिए मेरे पिता को सारे जीवन की जमा पूंजी या विरासत लगानी होगी और हो सकता है वो कर्ज में भी डूब जाएँ. अक्सर तो मेरी जाति भी इस लूट में भाग लेती है और अपने ही पिता का हर संभव शोषण करती है.

एक शिक्षित युवा होकर भी मेरे विचारों पर रिश्तों और खुराफातों का दबदबा है. परिवार की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए मुझे घूस खाने और निर्विकल्प रूप से औरों का शोषण करने के लिए प्रेरित किया जाता है. तमाम तरह के अपराधों को स्वीकार और अंगीकार करने के लिए छल-बल-भय हर चीज का सहारा लिया जाता है. मेरा डॉक्टर मित्र मानव अंगों की तस्करी करने, अध्यापक मित्र क्षात्रों को दुर्गुण देने और समाज में गलत आदर्श स्थापित करने, पादरी मित्र बाल-यौन शोषण और धार्मिक असहिष्णुता फैलाने, प्रबंधक मित्र छल से संपत्ति हड़प करने, अधिकारी मित्र सरकारी पैसे की लूट, प्रशासनिक मित्र अपराधियों को बचाने और आम जनता को डराने, नेता मित्र समाज का विघटन करने एवं उपरोक्त सभी कर्मों की भूमिका बनाने में व्यस्त है. अपनी खीसें भरने के लिए मेरा पिता मेरे भावी जीवन साथी के पिता को भिखारी बना देना चाहता है. और मेरे ही तमाम मित्र अनार्जित धन लालसा में अपने ही मूल्यों को नालियों में बहाते हैं. चारो ओर अकर्मण्यता और लूट का राज्य पसरा हुआ है. मेरे चेहरे के पीछे सिर्फ दो रूप है, शोषक या शोषित, अपराधी या पीड़ित.

शादी के बाद, जब से इस घर पे कदम रखा है स्वाभिमान सड़े गोबर से भी ज्यादा पतित हो गया है. कई वर्ष बीतने और ससुराली जन की तमाम सुश्रूषा करने पर भी एक इंसान सा सम्मान पाना मुश्किल हो गया है. दफ्तर जाना तो कब का बंद हो चुका, घर से बाहर निकलने पर भी पाबंदी है. घर के तमाम सदस्यों के लिए आया और पति के लिए काम क्रीडा का साधन से ज्यादा शायद मैं कुछ नहीं. मेरे जीवन से सम्बंधित फैसले न मायके में मुझसे पूँछ कर लिए गए और न यहाँ लिए जाते हैं. पति शारीरिक पीड़ा दे अपने कुकर्मों को छुपाता है. शादी होते ही मेरा नाम जैसे समाज के अभिलेखों से मिट गया है. तीन बेटियाँ हैं मेरी, दो बेटियाँ नष्ट कर चुकी और छठी बार पेट से हूँ. घर वालों की पुत्र लालसा में बच्चे पैदा करने की मशीन बनी जा रही हूँ. स्त्री पैदा करना एक स्त्री के लिए कितना पीड़ा दायक है आप मेरी काया देख कर अंदाज सकते हैं. युवावस्था में ही रक्त की कमी से शारीरिक रूप से अर्ध मृत और कटु वचनों का जहर पी मानसिक रूप से पूर्ण मृत, मैं, पुत्र जन्म की आशा में जीवित हूँ. हर सुबह बेटियों की गिनती करना मेरा पहला काम है...

उम्र के तीसरे पड़ाव पर पहुंचा मैं, पुरुष, अपने समस्त सपनों की कब्र पर खडा हूँ. तमाम सुविधाओं की बात तो बेमानी होगी, परिवार का सर छुपाने के लिए एक अदना सा माकान भी नहीं है. आमदनी की एक एक पाई दाल रोटी के जुगाड़, बच्चों की पढ़ाई और बेटियों के दहेज़ का साधन हो गयी है. हर छोटी से छोटी आवश्यकता के लिए दफतरों में दीर्घकालिक नाक रगड़ता हूँ और हर मौलिक अधिकार की प्राप्ति के लिए भारी कीमत चुकाता हूँ. मेरी संपत्ति पर कब किसकी नजर लग जायेगी ये तो शायद ईश्वर को भी मालूम न होगा. इस अवस्था पर पहुँच कर भी मेरे व्यक्तिगत निर्णय समाज के बुजुर्गों और सह-वासियों की कृपा के पात्र हैं और उन तमाम कुरीतियों में, जिनका मैं स्वयं आजीवन भुक्त भोगी रहा, उनकी हाँ में हाँ मिलाता हूँ. चारों ओर के अत्याचार से पीड़ित मैं अपनी खुन्नस बच्चों और पत्नी पर निकालता हूँ. मेरे चरित्र का निर्माण इस बात पर निर्भर नहीं करता कि मैं बेईमान, भ्रष्ट, अपराधी या धोकेबाज हूँ और माता-पिता की जूते से सेवा करता हूँ बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि मैं अपनी महिला सहकर्मियों के साथ कितना सहयोगी हूँ.

अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर बैठे हम वृद्ध इस समाज का सबसे गौण हिस्सा हैं. हमारे ही कुपुत्रों ने हमारी ही संपत्ति से हमें ही बेदखल सा कर रखा है. इस संपत्ति हस्तांतरण में जो खूनी खेल इन्होने आपस में खेला उससे हमारी आत्मा आज भी दहल उठती है. दो वक्त की रोटी ईश्वर की कृपा द्रष्टि की मोहताज हो गयी है. जिस परिवार को हमने अपने खून से सींचा वो अब हमारे स्वर्ग सिधारने की बाट जोह रहा है और हमें सुन्दरी के चेहरे पर हुए चर्म रोग की तरह देखता है. सेवा के लिए तो पूछो ही मत छोटे बच्चों को भी हमारे पास नहीं फटकने दिया जाता. मरने से पहले ही म्रतप्राय हम वृद्धावस्था में होने वाले तमाम रोगों को अपनी संतति से छुपाते हुए, अन्यथा लानत और फटकार से इलाज होगा, यमदूत का इन्तजार कर रहे हैं.

सामान्य किन्तु दीर्घकालिक बीमारी की वजह से आज से तेरह दिन पहले मैंने देह त्याग दी. पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे घर में कोई विशाल एवं भव्य आयोजन हो रहा है. मेरे पुत्र जिनसे घ्रणा करते थे आज उन्ही का स्वागत सत्कार और स्तुति कर रहे हैं. सभी खामोश हैं किन्तु अन्दर का हर्षोन्माद कभी कभी फूट पड़ता है. आयोजन को सफल बनाने के तमाम प्रयास किये जा रहे हैं. इस बीच मेरी मृत्यु से घायल, घर के एक सुनसान कोने में बैठी मेरी पोती के मष्तिष्क में अनायास ही ये ख़याल दौड़ जाता है "अगर इस आयोजन में लगी कीमत का दसवां हिस्सा भी दादा जी के इलाज में खर्च किया गया होता तो शायद वो जीवित होते...." और वो फफक पड़ती है.
ram 

Wednesday, May 2, 2012

पानी

उत्तर भारत के दो प्रदेशों में बंटा एक क्षेत्र बुंदेलखंड, अधिकाँश ऊसर, लम्बे समय से भारत सरकार के तिरस्कार की कहानी बयां करता है. प्राकृतिक एवं समसामयिक आपदाओं का दंश झेल रहे इसी क्षेत्र में सारी विपत्तियों को बगलों से झांकता एक गाँव है. सड़क, बिजली और पेयजल की सुविधाओं से लैस यह गाँव बुंदेलखंड के एक आदर्श गाँव कहलाने का हक़ रखता है. घरों में पानी की सीधी आपूर्ति होने के कारण कुंए इष्टदेव से अभिशप्त हो परिवार के वृद्ध की भांति गौण और कचरे के ढेर को सहेजने का साधन हुए जा रहे हैं एवं गाँव के दबंग तालाबों में अपने भावी सपनो के महल को साकार कर रहे हैं. इसी गाँव के बीचोबीच इस मकान का एक मात्र दरवाजा पश्चिम की ओर खुलता है. दरवाजा खुला होने पर सड़क और रसोई के बीच सिर्फ सुबह और शाम का फर्क रहता है. सूर्य के पूर्वान्ह होने के कारण मकान के अन्दर का अधिकाँश हिस्सा अस्पष्ट है किन्तु दीवार से परावर्तित हल्की धूप ने दस्तक दे आँगन की स्थिति स्पष्ट दी है. मकान के सबसे आगे की छत बाबरी मस्जिद की भाँती क्षतिग्रस्त होने के कारण लोहे की पुरानी चादरों से ढकी होकर इसके अन्तःवासियों की आर्थिक स्थिति को नंगा करती है. आँगन में ही दीवार से सटी, सामने की छत को जाती, मिट्टी से बनी सीढ़ियों के बीचों बीच बैठा कुछ ९-१० साल का अर्धनग्न बच्चा दूध के साथ कल की रोटियों के सबूत मिटा रहा है. छत पर एक छोटी सी १०-१२ साल की लडकी का सिल पर बट का घिसना और पास बने झोंपड़ीनुमा कमरे से निकलती धुंए की लहरें दैनिक क्रियाकलाप की चुगली कर रही हैं.कभी कभी उठने वाली ऊंची आवाजें घर में और लोगों की उपस्थिति दर्ज कराती हैं. आँगन के एक कोने पर स्नान, बर्तन धोने और लघुशंका करने की एकीकृत जगह है. उसी जगह पर एक सिल में बैठा अधेड़ स्नान की तैयारी बना रहा है. बहुत देर तक अपरिवर्तनीय इस स्थिति की काल गणना नेपथ्य में बज रहे समकालीन फ़िल्मी गाने करते हैं. अचानक बच्चा सकुचाया हुआ.. "पिता जी नल बंद कर दीजिये, बहुत देर से पानी बह रहा है". पिता शायद इस अनुग्रह को अनसुना कर देता है. बच्चा फिर से उसी बात पर थोडा बल देकर पिता का ध्यान पाने में सफल होता है "जब तक आ (पानी आने का कुछ निश्चित समय है) रहा है तब तक इस्तेमाल कर लेते है". बच्चा "लेकिन ये तो बह रहा है". पिता बोलना जरूरी नहीं समझता.

आज कई वर्षों बाद वही बच्चा, क्षमा कीजिये कुछ ३० वर्ष का हृष्ट पुष्ट युवा, कुछ दिनों के अवकाश पर विदेश से घर आया है. इस बीच गाँव से हरे रंग ने मुंह मोड़ लिया है और चहुँ ओर कंकरीट के खेत नजर आते हैं. आज भी उस घर की छत वहां के अंतःवासियों की आर्थिक स्थिति बयाँ करती है परन्तु पूर्व के विपरीत. आज भी सूर्य पूर्वान्ह और घर का 'मुख्य' दरवाजा पश्चिम की ओर ही है लेकिन अतिथि कक्ष में कृत्रिम प्रकाश की प्रचुरता और लोगों का अभाव है. उत्सुक पड़ोसी, युवक की आजीविका को लेकर तमाम किस्म की अटकलें लगाते हुए उसकी तारीफ़ के कसीदे पढ़ते हैं. कुछ देर बीतने पर वृद्ध पिता आज फिर स्नान की तैयारी बनाने लगता है. बदले हुए वक्त में स्नान के लिए दूर के हैंडपंप का गन्दला पानी ही एकमात्र सहारा है. उम्र बढ़ने के साथ युवा का पितृ-भय आदर में परिवर्तित हो चुका है अतः वो पिता से पानी की बाल्टियाँ ले हैंडपंप का रुख करता है. वहां, किसी समायोजन में भाग लेने आयी सी भीड़ जनसँख्या विस्फोट और पानी की किल्लत का उत्कृष्ट नजारा प्रस्तुत कर रही थी और हैंडपंप मानवता के इस नाटक पर आंसू बहाता सा प्रतीत होता था. लोगों की झुंझलाहट से उभरी वेदना बर्तनों के भीषण कोलाहल में घुट जाती थी. घंटों के इन्तजार के बाद उसकी बारी आती जान पड़ती है.


बदहवासी से चीखता एक अधेड़ पड़ोसी दरवाजे तोड़ता सा आँगन में पहुँच छटपटाकर गिरता है "चाचा, भैय्याआ...हैंडप.... " और दरवाजे की ओर इशारा कर बेहोश हो जाता है. रसोई के दरवाजे पर टिककर खडी वृद्ध माँ उस दिशा की ओर भागती है और थोड़ा दूर सड़क पर जा गिरती है...

 

Sunday, March 25, 2012

यत्र नारी पूज्यन्ते

सुषमा का यौन शोषण तब किया गया जब वह एक अन्य आइपीएस अधिकारी परवेज हयात द्वारा यौन शोषण की शिकायत लेकर पीएस नटराजन के पास पहुंची थी। उस वक्त नटराजन आइजी थे। न्याय की जगह नटराजन ने वही किया जो हयात ने किया था। हयात के खिलाफ जांच अभी जारी है। हयात पर जिस समय सुषमा का यौन शोषण का आरोप लगा था, उस वक्त हयात झारखंड सीआइडी के डीआइजी थे। फिलहाल हयात केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली में तैनात हैं। हयात से पूर्व सुषमा के साथ सात जून, 2002 को सामूहिक दुराचार का मामला पलामू के एक थाने में दर्ज हुआ था। इसी मामले में न्याय पाने की आस में वह हयात के पास गई थी।
 http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_9052486.html

Monday, March 19, 2012

विद्या दर्शन

इस बार की सर्दियों में अकारण ही गाँव जा पहुंचा. शहरों की गन्दगी गाँव पहुचे ज्यादा वर्ष नहीं हुए. चारो तरफ पोलिथीन बैग के ढेर, कचरे से पटी नालियां, धूल के उठते जानलेवा गुबार, बेहूदे फ़िल्मी गानों का शोर, और पागल हाथी-घोड़ों की तरह दौड़ते वाहन, कोई महायुद्ध की सी विभीषिका से सिर्फ लाशों का न होना ही एक इतर बात थी. मेरे ट्राली बैग का अनगिनत बार लोगों से टकराना देश की बढ़ती आबादी की घोषणा कर रहा था, और मेरा मुस्कुराकर आगे बढ़ते जाना इस महामारी के प्रति हमारी स्वीकृति की. घर पहुच कर लग रहा था जैसे किसी कारखाने में आ गया हूँ. इलेक्ट्रोनिक वस्तुओं का अम्बार तो चारो ओर फैला था किन्तु अन्न देवता के दर्शन भोजन से पहले सुलभ न हुए. जिस भी समूह में घुसो, क्षेत्रीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, फ़िल्मी मसाला, क्रिकेट, मोबाइल, एसेमेस, एमेमेस, और सेक्स से सम्बंधित चर्चाएँ. कृषि की न किसी को खबर है न फिकर, हर कोई व्यापारी हुआ जा रहा है (बताता चलूँ कि यही वो काम है जिससे आज इस देश की अर्थव्यवस्था सुद्रढ़ हुई है, और यही वो काम है जो कल देश को डुबोयेगा. न बौद्धिकता की जरूरत, न श्रम की और न ही चरित्र/व्यक्तित्व की). बेवजह हाथ आया पैसा तमाम तरह से प्रकृति का मान मर्दन करने के काम आता है (शहर में भी और यहाँ भी). रात होते ही पड़ोस की गढ़िया, जो हमारे बचपन में तालाब थी और भीषण गर्मी में झुलसते बदन का आश्रय, से असंख्य मच्छरों ने हमला किया तो रात खूनी युद्ध करते बीती. दूर किसी मोहल्ले में १५ वर्षीय बच्चे की चिकनगुनिया से मृत्यु की खबर ने सुबह होने की गुहार लगाई तो बस सामान बाँध वापस आने का दिल करने लगा. भौजाई ने निघौना बनाने का लालच दे रोका तो भाई साहब चर्चा कर बैठे.

भाई साहब: बबुआ, मौसम बड़ा हुई रहो है तो का करिए? या साल....(बीच में ही रुकना पड़ा)
हम: मौसम तो आता जाता रहता है... वैसे इस बार तो कुछ ख़ास नुकसान नहीं हुआ होगा फसल को (पंचवर्षीय सूखे की मार खाया किसान उपज की बात क्या करेगा)!!
भाई साहब: अरे वा मौसम नहीं, अपन मौसम.
हम: अच्छा..आ (हमने अंदाजा लगाया कि हमारे छोटे भतीजे की बात हो रही है... बाकी लोगो का नाम हम जानते हैं.)
भाई साहब: सोचो रहै या साल से स्कूल भेजैं लगिये. वैसे तोये ख़याल से कौने स्कूल मा डालो चहिये?
हम: हमें तो कोई अंदाजा नहीं, कौन सा स्कूल बेहतर है ये तो गाँव में रह के ही पता चल सकता है.
भाई साहब: ससुर (अपरिप्रेक्ष्य), बहुत स्कूल खुल गे हैं आजकल, रोजै खुलत हैं. बिजनेस बना लीन्ह हैन.
हम: कोई, जिसमे अच्छे और समझदार टीचर हों उसी में भेजिए, लोगों से बात कर के पता लगा लीजिये कि कौन बेहतर है.
भाई साहब: अरे, ह्यां निहाय कौनो महतारी-बाप का मतलब कि लरका बच्चा का पढ़त हैं. फीस दई दीन्ह बस छुट्टी.      
हम: ......
भाई साहब: आज तो तैं हा, पता लगा ले तनक कि कौन सही रही.
हम: हओ.

नहा धो कर, आधे घंटे तक योग करने का ढोंग किया लेकिन रातों रात काय पलट कहानियों की बातें हैं सोच सुनहरी धूप का ख़याल कर छत पर ही  ध्यान मुद्रा में बैठ खाने के बुलावे का इंतज़ार करने लगा. शीघ्र ही माँ ने खाने की थाली छत पर पहुँचा दी. खा-पीकर फारिग हुए तो विद्यालय निरीक्षण के बहाने ग्राम भ्रमण को निकल पड़े.    

नजदीक के कुछ नये खुले विद्यालयों में गया तो पता चला कि गाँव के छंटे बदमाश जो अपने काल में स्कूल में कम ताश के फड पर ज्यादा समय बिताते थे, अध्यापक बने बैठे हैं. कुछ अपने काल के सज्जन भी किसी तरह पेट पालने की कोशिश करते मिले, लेकिन ये वो सज्जन नहीं जो सब जान/कर सज्जन हो गए हैं बल्कि वो जिन्हें दुर्जनता का बोध ही नहीं या वो जिन्हें दुर्जनता के लिए आवश्यक प्रष्ठभूमि विरासत में न मिली हो. निराश हो लंगोटिया मित्रों से चर्चा छेड़ दी. सभी ने किसी अन्गरेजीदा स्कूल का ही नाम प्रस्तावित किया सो हम चल दिए उसी की परख को.

भवन दिखने से पहले ही कानों को ए फॉर एप्पल, बी फॉर बॉय एवं टू टूजा फोर की विजय ध्वनि गुंजायमान होने लगी. लगा, यार, चलो कुछ तो दम दिख रहा है. अन्दर पहुंचा तो सर्वप्रथम प्रिंसिपल साहब के चपरासी कम पीए से मुठभेड़ हुई.

हम: भैया जी, प्रिंसिपल साहब कहाँ बैठते हैं.  
पीए: क्या काम है?
हम: वो, हमारे बच्चे के एड्मिसन के लिए बात करनी थी.
पीए: इसमें बात क्या करनी है, जुलाई में आओ, फीस दो हो जाएगा.
हम: एक बार इसी सिलसिले में हम प्रिंसिपल साहब से बात करना चाहते हैं.
पीए: नहीं हैं.
हम: कब तक आ जायेंगे?
पीए: (झल्लाते हुए)  वो प्रधानी के चुनाव प्रचार में गए हैं, आज नहीं आयेंगे.

पीए साहब व्यस्त हुए तो हम दनदनाते हुए एक कक्षा में घुस गए. अरे, ये तो कभी हमारे साथ पढने वाली कुसुम है, शायद मुझे नहीं पहचानती. धूमिल रंग फिर छटा बिखेरने लगे तो थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गयी.

कुसुम: जी, व्हाट इज? (८वी तक हम ही अपनी कक्षा का अंकपत्र तैयार करते थे सो कुसुम जी की करतूत....)
हम: (घबराते हुए) जी वो प्रिंसिपल साहब थे नहीं सो सोचा आप से ही मिल लेता हूँ.
कुसुम: हाँ, पापा, वो तो इलेक्शन में प्रचार के लिए गए हैं.
हम: वो, मेरा भतीजा बड़ा हो रहा है तो उसके एड्मिसन के लिए सोच रहे हैं. क्या आप से कुछ बातें कर सकता हूँ?
कुसुम: ओके, पर अक्चुअली, एड्मिसन तो जुलाई में ही ओपेन होता है.
हम: जी, बस मैं तो स्कूल के बारे में पता करने चला आया था. हालांकि, लोग काफी तारीफ़ कर रहे हैं.
कुसुम: यू नो, हमारे यहाँ इंग्लिश मीडियम में पढ़ाई होती है (मुझे इनके अंडे याद आने लगे).
हम: वैसे, लगभग कितने बच्चे और अध्यापक होंगे?
कुसुम:सटप(किसी बच्चे से..)  देखिये, एल के जी से एट तक कुल ५०० से ज्यादा होंगे.
हम: (मुझे लगा ये कम करके बतायेंगी) और टीचर?
कुसुम: मी, मेरी भाभी, पापा, सुरेश (कुसुम का कथित प्रेमी) और भगवान अंकल (विजिटिंग कार्ड) हैं. कुछ लोग और ज्वाइन करेंगे. (मुझे विद्यालय के इंग्लिश मीडियम होने पर संदेह होने लगा).
हम: वैसे कोर्स स्ट्रक्चर क्या है? मेरा मतलब है, बहुत छोटे बच्चों का छोड़ के.... मेरा मतलब है...
कुसुम: एवेरीथिंग. इंग्लिश, मैथ, साइंस, इतिहास, ए फूल साइलेंट हो जाओ (शायद किसी बच्चे से) भूगोल, नैतिक शिक्षा....
हम: आप क्या पढ़ाती हैं?
कुसुम: मैं तो इंग्लिश और नैतिक शिक्षा पढ़ाती हूँ. सुरेश मैथ और भाभी साइंस, वैसे कोई भी कुछ भी पढ़ा देता है.    
हम: क्या मैं बच्चों की किताबें देख सकता हूँ? ये कितने की क्लास है?
कुसुम: ए प्रिंस, अपना बुक्स ले के आओ, कम हियर.
हम: ये सारी किताबें तो हिंदी में हैं !!
कुसुम: ए, इंग्लिश की किताब दिखाओ. (मेरे चेहरे को पढ़ते हुए) इंग्लिश मीडियम है, इंग्लिश तो पढ़ाते ही हैं...

विद्यालय से बाहर आया तो लगा जैसे देश को आजादी मिल गयी और मैं तेजी से क्रिकेट मैदान की ओर कदम बढाने लगा, अचानक ठिठका, हो न हो इसमें भी चल के देख लेते हैं, और मेरे कदम गाँव की दो पास पास की प्राथमिक पाठशालाओं की ओर मुड़ गए. पास जा के देखा तो सीमित बच्चे धमा चौकड़ी मचा रहे हैं. संख्या से कनाडा और जीवन स्तर से सियारा लियान सा. देर तक जब कुछ समझ ना आया तो एक बच्चे को पकड़ कर पूछा "मास्टर साहब कहाँ हैं?" बच्चे ने दूसरे विद्यालय के मैदान में धूप सेंक रही दो महिलाओं की ओर उंगली कर दी, जो बेफिक्र विद्यालय की ओर पीठ कर के कुछ ख्यालों में खोयी मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावती सी लग रही थीं. पास जा कर थोडा दबंगई से
हम: उस स्कूल में आप ही हैं?
एक: हाँ, आप कौन?
हम: प्रिंसिपल कहाँ बैठते हैं (अंदाज लगाते हुए कि वो इनसे अलग होंगे).
दूसरी: आते ही होंगे, मिड डे मील के लिए सामन खरीदवाने गए हैं.
हम: (सोचते हुए कि ये काम भी प्रिंसिपल का है क्या!) कितनी देर में आयेंगे? बाकी टीचर नहीं दिख रहे !!
एक: आज नहीं आयेंगे, बीएसए के साथ मीटिंग पे जाने वाले हैं. आप को क्या काम है?
दूसरी: आप को क्या लगता है हम... (सम्हलते हुए) हम ही हैं टीचर, बोलिए
हम: शिक्षा मित्र भी तो होंगे? क्या वो नहीं आते? उनके नाम बताइए जरा सा, मैं इलाहाबाद से आया हूँ , सभी स्कूलों का एक जैसा हाल है, मेरा आइडेन्टिटी कार्ड देखेंगी (सफ़ेद झूठ, आज का गेटप काम करता दिखा).
पहली: जी हम लोग ही तो शिक्षा मित्र हैं.
हम: मैं स्कूल के अटेंडेंस रजिस्टर देखना चाहता हूँ. इतने कम बच्चे स्कूल में क्यों हैं? (दोनों एक दूसरे का मुंह देखती हैं)
वो:...........
हम: मैं बीएसए से मिलकर ही आ रहा हूँ, क्या उन्हें भी बुला लूं ? प्रिंसिपल को फ़ोन करके बुलाइए अभी....
एक सुर में: जी वो, वो बीमार हैं कुछ दिनों से इसलिए आते नहीं.
हम: स्कूल रजिस्टर.... (दोनों चल देती हैं).
हम: रजिस्टर में तो कुछ २०० बच्चे हैं और लगभग सभी उपस्थित हैं फिर स्कूल में २०-३० ही क्यूँ दिख रहे हैं बाकी बच्चे कहाँ हैं?
दूसरी: आये थे सभी... कुछ चले गए.
हम: कुछ चले गए? १५० बच्चे ११ बजे चले गए? पढ़ा रही हैं मुझे, रोज ऐसा ही होता है?
दोनों:.......
हम: ये रुक्मिणी कौन हैं? और इनकी हफ्ते भर की आगे की अटेंडेंस क्यों लगी है? और ये रोहित साहब १५ दिन पहले आये थे? झूठ नहीं इस बार...
पहली: (घबराते हुए) जी, रुक्मिणी मैडम की शादी हो गयी है पिछले साल और वो कानपुर में रहती हैं. इसलिए..
हम: और ये रोहित...
दूसरी: जी वो इलाहाबाद से आते हैं, तैयारी कर रहे हैं इसलिए कम ही आते हैं.
हम: यानी वो ३० दिन में आते हैं और आगे पीछे का अटेंडेंस लगा के जाते हैं.
दोनों:........
हम: आज आप लोगों ने क्या पढाया है?
दोनों:..........
मैं एक शिकायत पत्र तैयार करता हूँ और दोनों के हस्ताक्षर ले क्रिकेट मैदान की ओर बढ़ जाता हूँ. दूसरी घबराई हुई, शायद, प्रिंसिपल को फ़ोन करती है...             

राम 



    

Saturday, March 10, 2012

होली

धरा धरे श्रंगार नए नित, नैनन जल का रंग मिटे न;
बेरंग रंगा राम का जीवन, युग बीते होली सिमटे न।

Sunday, February 19, 2012

साधारण यात्रा


बड़े भाई की आँख का ऑपरेशन कराने के लिए चित्रकूट जाना था. इलाहाबाद से ज्यादा दूर ना होने और पूर्व निर्धारित कार्यक्रम न होने के कारण साधारण डिब्बे से यात्रा का विचार हुआ. वैसे तो हमारा इलाहाबाद शहर ही आज कल दुर्गति और अव्यवस्था का शिकार है, किन्तु उत्तर भारतीय रेल स्टेशन की कुरूपता लम्बी और गंभीर है. चारो तरफ प्लास्टिक बैग और मल से पटे रेल पथ न चाहते हुए भी आप के नजले जुकाम पर भारी पड़ते हैं और एक कदम भी ध्यान बंटने पर आप का पैर गन्दगी पर होता है. गलती से अगर कही बैठ गए हैं तो वो उत्तेजक गंध आप के गंतव्य तक भी पीछा नहीं छोड़ती.

इस सब से होते गुजरते लगभग एक घंटे के चिरंतम इंतज़ार के बाद ट्रेन आने पर जब मैं साधारण बोगी के दरवाजे पर पहुचा तो एक बारगी उससे आने वाली गंध के धक्के से दो कदम पीछे चला गया और उसी बीच कम से कम २० लोग उसी दरवाजे से प्रविष्ट हो गए. ख़याल आया कि मेरी यात्रा आवश्यक है, और शयनयान वाले डिब्बे में जाकर टिकिट टेलर की अभद्रता झेलना मुश्किल होगा अतः मैं उस स्वर्ग में सम्पूर्ण शक्ति झोंक प्रवेश कर गया. भीड़ बहुत होने के कारण असंतुलित होने पर सहारे के लिए मेरा हाथ दरवाजे के पास की चिलमची (washbasin) पर चला गया, मैंने पाया किया कि मेरी हथेली लोगो द्वारा थूके गए पान, गुटका और कफ से लथपथ है, उसी चिलमची पर लगे टेप से हाथ धुल नाक सिकोड़ता मैं आगे बढ़ा तो देखा कि शौचालय के दोनों दरवाजे खुले हैं और उनसे भयंकर दुर्गन्ध आ रही है, विस्मयकारी रूप से कई लोग जगह की कमी के कारण उन दरवाजो के पास खड़े थे और उनमे से एक दरवाजे बंद करने की नाकाम कोशिश कर रहा था. एक बार अन्दर घुसने पर भीड़ ने स्वयं ही मुझे बोगी के मध्य ला दिया, भाग्यवश मेरे पास ज्यादा सामान न था वरना सर पर रख के खड़ा होना पड़ता. पास से आती गरम आवाज ने पहला ध्यान खीचा.

खड़ा हुआ: भाई साहब ये सीट लेटने के लिए नहीं है, उठ के बैठ जाइए और लोगो को बैठने दीजिये.
लेटा हुआ: .........(करवट बदलता है).
खड़ा हुआ: भाई साहब उठ के बैठिये, महिलाओं और बच्चों को बैठने दीजिये.
लेटा हुआ: क्या है रे, तेरे बाप की सीट है? नहीं उठूंगा उखाड़ ले जो उखाड़ना है.
खड़ा हुआ: नहीं तेरे बाप की सीट है इसीलिए तू पैर फैला के सोया है.
लेटा हुआ: ऐसे नहीं मानेगा मादर चोद, (उठते हुए) भोसड़ी के एक शब्द बोल तू फिर मैं बताता हु मैं कौन हूँ.
खड़ा हुआ: अरे ओ रिंकू जरा बुलाओ तो सबको, देखो बहन चोद एक गुंडा पैदा हुआ है....


थोड़ी देर की बहस के बाद सब शांत हो जाते हैं. साधारण दर्जे का टिकिट ले शयनयान वाले डिब्बे में घुसने वालों की तरह कोई राजनीति की बातें करता न दिखा. सभी के मस्तक पर भय और अविश्वास की खिंची दो रेखाएं किसी ट्रेड-मार्क का एहसास करा रही थीं. मैं, विश्लेषण कर पाने में असमर्थ, कुछ लोगो से अनुरोध के पश्चात १/४ सीट पा थोडा आराम करता हुआ खुद को सबसे अलग दिखाने की कोशिश में आस पास अपने दांत बिखेरता हूँ किन्तु खिन्न चेहरे से युक्त लोगो को ये क्रिया बेगानी और बच्चो को डरावनी प्रतीत होती है इसलिए मैं सहम कर एक और नमूना प्रस्तुत करता हु और लैपटॉप निकाल जल्दबाजी में डाउनलोड किये हुए आँखों से सम्बंधित विभिन्न प्रकार के रोग, ऑपरेशन के तरीके और उनकी जटिलता के बारे में पढने का ढोंग करने लगता हूँ. किन्तु लोगो के मलिन कपड़ो, उनके सामान और खाने पीने के बाद फैलाई गयी गन्दगी से उठाने वाली गंध बीमार बनाती प्रतीत हुई. बोगी में चारो तरफ खांस रहे तेजहीन चेहरों को देख लग रहा था जैसे ये ट्रेन सीधे शमशान घाट जा रही है. कुछ ही क्षण बीते होंगे मेरा हाल भी वही हुआ जा रहा था, सर में तेज दर्द और खांसी. कारण दूर न था, गुस्से को ठंडा करता हुआ उठा...

मैं: इतने लोग आप के आस पास बैठे हैं और आप को तनिक भी ख़याल नहीं कि यहाँ बीडी नहीं पीनी चाहिए.
वो: .......(घूरते हुए) कौनो दिक्कत?
मैं: आप देख नहीं रहे लोग खांस खांस के परेशान हैं (बीच में ही)
तीसरा: किसी का पेट पिरायेगा(दर्द करेगा) तो कोई का करे
मैं: तो पेट दर्द का दवा लेना था...
वो: चलत ट्रेन मा दवा कहा से लावा जाए.
मैं: आप को पेट दर्द करेगा ट्रेन में इसलिए बीडी घर से लेके चले, दवा नहीं ले सकते थे.
तीसरा: जा आपन काम करा (घूरते हुए).
मैं: वैसे बीडी पेट दर्द का इलाज है ये किस डॉक्टर ने कहा?
वो: बहस न कर हमसे... तू पढ़त हा इतनी देर से हम मना किया?
मैं: ........................(!!!!)
महसूस करता हूँ कि कुछ और लोग मुझे घूर रहे हैं और मन ही मन मेरी पिटाई कर रहे हैं. उस पुरुष के आस पास बैठी महिलाएं खांस कर मेरे पढने से होने वाले नुकसान की पुष्टि करती हैं. फर्श पर बैठा वृद्ध पहले अपनी पाचन शक्ति का परिचय देता है फिर प्राचीन प्लास्टिक बोतल का झागयुक्त पानी मुह में उडेल देता है. 
               

Tuesday, January 17, 2012

गाँधी, क्या से क्या हो गया देखते देखते

यूं तो गाँधी खुद में एक विचारधारा थे. उनका हर कदम, उनके हर कथन आज भी शोध की विषयवस्तु हैं. और इतने वर्षों के चिंतन के बावजूद विद्वान उनके दिल के एक कदम भी करीब नहीं पहुँच सके. मैं ठहरा विज्ञान का क्षात्र अतः मुझसे तो आप वैसे भी मानवीय समझ की अपेक्षा मत कीजिये. आज अचानक स्नान करते वक्त प्राथमिक पाठशाला की प्रार्थना फिर वहां के गुरु जी और फिर वहाँ दी जाने वाली नैतिक शिक्षा याद आ गयी. पर सब कुछ घूम फिर के गांधी के उन तीन बंदरों की कहानी पर जा टिका. सोचा "बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, बुरा मत सुनो" ... अचानक बचपन का एक सहपाठी चिल्ला चिल्ला के कहने लगा गुरु "बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, बुरा मत सुनो येही कहा है न गांधी जी ने लेकिन बुरा सोचने और बुरा करने के लिए तो मना नहीं किया".... भयभीत होकर भागा तो पाया कि गरम पानी की मात्रा ज्यादा हो रही है. 
सोचने लगा "बुरा मत देखो" का मतलब होगा कि 'अगर कुछ सामने बुरा हो रहा है जो सर्वजन हिताय नहीं है तो आँख बंद कर उस होने की उपेक्षा कर वहाँ से निकल लिया जाए' या 'जो बुरा हो रहा है उसे रोकने के लिए वाजिब प्रयास किया जाय ताकि वो होना रुके और भविष्य में ऐसा होने की संभावनाएं कम हों'.
"बुरा मत कहो" का मतलब ये होगा कि 'चाहे सामने वाला जितना बुरा हो उससे हमेशा मीठी मीठी बातें ही की जाएँ, ऐसी कोई बात न कही जाए जो कडवी हो, भले ही सच कड़वा होता है' या 'बिना स्वार्थ के सत्य और उपयोक्त बात ही कही जाए जो सर्वसाधारण के हित में हो, भले ही वो तीखी और दिल दुखाने वाली हो'
"बुरा मत सुनो" का मतलब ये होगा कि 'दिल को बुरी लगने वाली बात न सुनो' या 'जो बात नुकसान करने वाली हो उसे ध्यान से सुन उचित विश्लेषण कर तार्किक और मूल्यों पर आधारित बात बुरा कहने वाले को समझाई जाये ताकि किसी कथन के परिणाम सुन्दर हों और सोच विकसित'
आप जानें "बुरा मत सोचो और बुरा मत करो" उपरोक्त दो प्रकार के विश्लेषणों में किसमे परोक्ष  रूप  से समाहित है. गांधी की गांधी जानें, लोक चलन में पहले प्रकार का विश्लेषण ही उपयुक्त दीखता है.

बताता चलूँ कि किशोरावस्था तक, इस नैतिक शिक्षा का, विभिन्न उम्र के लोगों द्वारा सुझाये निहितार्थों का निचोड़ एक ही था "सेक्स, सेक्स, सेक्स".

राम