बड़े भाई की आँख का ऑपरेशन कराने के लिए चित्रकूट जाना था. इलाहाबाद से ज्यादा दूर ना होने और पूर्व निर्धारित कार्यक्रम न होने के कारण साधारण डिब्बे से यात्रा का विचार हुआ. वैसे तो हमारा इलाहाबाद शहर ही आज कल दुर्गति और अव्यवस्था का शिकार है, किन्तु उत्तर भारतीय रेल स्टेशन की कुरूपता लम्बी और गंभीर है. चारो तरफ प्लास्टिक बैग और मल से पटे रेल पथ न चाहते हुए भी आप के नजले जुकाम पर भारी पड़ते हैं और एक कदम भी ध्यान बंटने पर आप का पैर गन्दगी पर होता है. गलती से अगर कही बैठ गए हैं तो वो उत्तेजक गंध आप के गंतव्य तक भी पीछा नहीं छोड़ती.
इस सब से होते गुजरते लगभग एक घंटे के चिरंतम इंतज़ार के बाद ट्रेन आने पर जब मैं साधारण बोगी के दरवाजे पर पहुचा तो एक बारगी उससे आने वाली गंध के धक्के से दो कदम पीछे चला गया और उसी बीच कम से कम २० लोग उसी दरवाजे से प्रविष्ट हो गए. ख़याल आया कि मेरी यात्रा आवश्यक है, और शयनयान वाले डिब्बे में जाकर टिकिट टेलर की अभद्रता झेलना मुश्किल होगा अतः मैं उस स्वर्ग में सम्पूर्ण शक्ति झोंक प्रवेश कर गया. भीड़ बहुत होने के कारण असंतुलित होने पर सहारे के लिए मेरा हाथ दरवाजे के पास की चिलमची (washbasin) पर चला गया, मैंने पाया किया कि मेरी हथेली लोगो द्वारा थूके गए पान, गुटका और कफ से लथपथ है, उसी चिलमची पर लगे टेप से हाथ धुल नाक सिकोड़ता मैं आगे बढ़ा तो देखा कि शौचालय के दोनों दरवाजे खुले हैं और उनसे भयंकर दुर्गन्ध आ रही है, विस्मयकारी रूप से कई लोग जगह की कमी के कारण उन दरवाजो के पास खड़े थे और उनमे से एक दरवाजे बंद करने की नाकाम कोशिश कर रहा था. एक बार अन्दर घुसने पर भीड़ ने स्वयं ही मुझे बोगी के मध्य ला दिया, भाग्यवश मेरे पास ज्यादा सामान न था वरना सर पर रख के खड़ा होना पड़ता. पास से आती गरम आवाज ने पहला ध्यान खीचा.
खड़ा हुआ: भाई साहब ये सीट लेटने के लिए नहीं है, उठ के बैठ जाइए और लोगो को बैठने दीजिये.
लेटा हुआ: .........(करवट बदलता है).
खड़ा हुआ: भाई साहब उठ के बैठिये, महिलाओं और बच्चों को बैठने दीजिये.
लेटा हुआ: क्या है रे, तेरे बाप की सीट है? नहीं उठूंगा उखाड़ ले जो उखाड़ना है.
खड़ा हुआ: नहीं तेरे बाप की सीट है इसीलिए तू पैर फैला के सोया है.
लेटा हुआ: ऐसे नहीं मानेगा मादर चोद, (उठते हुए) भोसड़ी के एक शब्द बोल तू फिर मैं बताता हु मैं कौन हूँ.
खड़ा हुआ: अरे ओ रिंकू जरा बुलाओ तो सबको, देखो बहन चोद एक गुंडा पैदा हुआ है....
थोड़ी देर की बहस के बाद सब शांत हो जाते हैं. साधारण दर्जे का टिकिट ले शयनयान वाले डिब्बे में घुसने वालों की तरह कोई राजनीति की बातें करता न दिखा. सभी के मस्तक पर भय और अविश्वास की खिंची दो रेखाएं किसी ट्रेड-मार्क का एहसास करा रही थीं. मैं, विश्लेषण कर पाने में असमर्थ, कुछ लोगो से अनुरोध के पश्चात १/४ सीट पा थोडा आराम करता हुआ खुद को सबसे अलग दिखाने की कोशिश में आस पास अपने दांत बिखेरता हूँ किन्तु खिन्न चेहरे से युक्त लोगो को ये क्रिया बेगानी और बच्चो को डरावनी प्रतीत होती है इसलिए मैं सहम कर एक और नमूना प्रस्तुत करता हु और लैपटॉप निकाल जल्दबाजी में डाउनलोड किये हुए आँखों से सम्बंधित विभिन्न प्रकार के रोग, ऑपरेशन के तरीके और उनकी जटिलता के बारे में पढने का ढोंग करने लगता हूँ. किन्तु लोगो के मलिन कपड़ो, उनके सामान और खाने पीने के बाद फैलाई गयी गन्दगी से उठाने वाली गंध बीमार बनाती प्रतीत हुई. बोगी में चारो तरफ खांस रहे तेजहीन चेहरों को देख लग रहा था जैसे ये ट्रेन सीधे शमशान घाट जा रही है. कुछ ही क्षण बीते होंगे मेरा हाल भी वही हुआ जा रहा था, सर में तेज दर्द और खांसी. कारण दूर न था, गुस्से को ठंडा करता हुआ उठा...
मैं: इतने लोग आप के आस पास बैठे हैं और आप को तनिक भी ख़याल नहीं कि यहाँ बीडी नहीं पीनी चाहिए.
वो: .......(घूरते हुए) कौनो दिक्कत?
मैं: आप देख नहीं रहे लोग खांस खांस के परेशान हैं (बीच में ही)
तीसरा: किसी का पेट पिरायेगा(दर्द करेगा) तो कोई का करे
मैं: तो पेट दर्द का दवा लेना था...
वो: चलत ट्रेन मा दवा कहा से लावा जाए.
मैं: आप को पेट दर्द करेगा ट्रेन में इसलिए बीडी घर से लेके चले, दवा नहीं ले सकते थे.
तीसरा: जा आपन काम करा (घूरते हुए).
मैं: वैसे बीडी पेट दर्द का इलाज है ये किस डॉक्टर ने कहा?
वो: बहस न कर हमसे... तू पढ़त हा इतनी देर से हम मना किया?
मैं: ........................(!!!!)
महसूस करता हूँ कि कुछ और लोग मुझे घूर रहे हैं और मन ही मन मेरी पिटाई कर रहे हैं. उस पुरुष के आस पास बैठी महिलाएं खांस कर मेरे पढने से होने वाले नुकसान की पुष्टि करती हैं. फर्श पर बैठा वृद्ध पहले अपनी पाचन शक्ति का परिचय देता है फिर प्राचीन प्लास्टिक बोतल का झागयुक्त पानी मुह में उडेल देता है.
That's why people don't want to return back to India. Sometimes I found here public toilet are cleaner than toilet in my apartment.
ReplyDeleteDude, what do you think what could be possible solution to this prob?
The attitude of the common public and the person abroad are same in certain sense. Both are escaping their responsibilities of making this country better place to survive. In all perspective we ourselves are the main reason to make our living miserable in this or that way.
ReplyDeletehmmm...smaran achcha hai :-)
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