Sunday, April 24, 2011

लोकपाल विधेयक, राजनीति और समाज

व्यापार का साम्यवादीकरण, धर्म का धर्मानिर्पेक्षिकरण, राजनीती का धर्मिकरण होना चाहिए, ये गाँधी जी का सपना था, है और वर्तमान परिद्रश्य में तो लगता है सपना ही रहेगा। ये सत्य होता नहीं दीखता। कभी कभी कुछ लोग उठ खड़े होते हैं और वर्तमान समाज का चेहरा बदलने लगता है। शायद इसलिए नहीं कि जीर्ण सड़े गले समाज में रहना एक सामान्य इंसान के लिए मुश्किल हो रहा है। एक बड़ा प्रतिनिधि वर्ग वो है जो साधारण जिन्दगी जीते हुए ऊब गया है और कुछ परिवर्तन चाहता है। ये वो वर्ग है जो गोधरा जैसी त्रासदी में हाथ में लोहे की छड़, और विस्फोटक ले के घूमता है और भिन्न धर्म के लोगो के गले काटता है, स्त्रियों की आबरू के साथ खेलता है। और साथ में अन्ना हजारे के भ्रस्टाचार विरोधी अनशन में जान हाथ में लेके बैठने से भी नहीं शर्माता। गाँधी और अन्ना जैसे लोग विस्मित हो कर रह जाते हैं कि इतने विशाल समर्थन की तो उन्हें अपेक्षा ही नहीं थी। गाँधी और अन्ना की लड़ाई में फर्क इतना है कि वो बाहर की गन्दगी घर से निकाल रहे थे और ये अन्दर की गंदगी साफ़ करना चाह रहे हैं। अनुपम समर्पण रहा होगा इस काम को करने के लिए। विभिन्न राजनेताओं के अनुसार संविधान के ढांचे में आमूल चूल परिवर्तन करने जैसा कदम। जिसको करने का सत्ताधारी पार्टी भी साहस नहीं कर पाती। लेकिन आज फिर अन्ना ने सिद्ध कर दिया कि हितोपयोगी कार्य करने के लिए बहुमत जुटाना नहीं पड़ता, समर्थन खुद चलकर आप के पास आता है।
मैं नहीं जानता कि ये लोकपाल विधेयक क्या है, और मेरे ख्याल से हमारे देश की ९०% जनता भी इसके क्लिष्ट प्रारूप से गुरुत्वाकर्षण के साधारण सिद्धांत की तरह अनभिज्ञ होगी। लेकिन समर्थन उन गूढ़ रहस्यों का नहीं बल्कि साधारण से सच्चे इंसान का और सीधी सी बात (भ्रष्टाचार मिटाओ) का है। ये है राजनीति की धार्मिकता।

सरकार झुकी और मसौदा तैयार करने के लिए समिति बनी। मीडिया से भी अभूतपूर्व सहयोग मिला। अच्छा, मीडिया से हर उस काम का सहयोग मिल जायेगा जिससे एक चटपटी खबर बन जाये। गाँधी जी के समय में मीडिया नहीं था वरना देश की आजादी के बाद वो खाली समय में राम धुन गा कर ढेर सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में विज्ञापन कर रहे होते।
देश को आजाद करते कराते बूढ़े हो गए थे तो चड्ढी बनियान का विज्ञापन तो भाता, लेकिन हाँ शक्ति बढ़ने वाली दवाओं के विज्ञापनों के ब्रांड अम्बेसडर होते। और इतनी जल्दी मारे भी जाते। तो जैसी भूमिका मीडिया ने अन्ना के समर्थन में निभाई वैसी उनके खिलाफ आरोप और प्रत्यारोपो के दौरान भी निभाई। हमारे देश के नेता आज उतने बड़े मूर्ख लगते जितने मीडिया के तोड़ मरोड़ कर बयां प्रस्तुत करने से लगने लगते हैं। हाँ बहुतों के कमीनेपन का अंदाजा किसी को नहीं।

जब हम अपने परिद्रश्य से देखते हैं तो हमारे देश के अधिकांश प्रतिनिधि समाज के सच्चे प्रतिनिधि हों ऐसा नहीं दीखते। लेकिन थोड़ी संगत या दैनिक समाचार पत्रों के बीच के पन्नो पर नजर डालने से स्पष्ट होता है कि ये ही इस भयावह समाज के सच्चे प्रतिनिधि हैं। जहाँ दिन प्रतिदिन के होते/बढ़ते अपराध से हम कुछ नहीं सीखते। अपराधी कौन? जवाब: मैं नहीं कोई और (या फिर "वो" जिसने अपराध किया ही नहीं) "मैं नहीं" ये इस जवाब का अहम् हिस्सा है। "कोई" कभी नजर में नहीं आता। वो गतिमान फलन है। "वो" भुगतते हैं। ये वो समाज है जहाँ नैतिक शिक्षा में सिखाया जाता है बड़ो का आदर करो और सिखाने वाला घर जाकर अपने पिता का सर खोल देता है। बाप सिखाता है दहेज़ लेना पाप है और अपने बेटे की शादी में आने वाली बहू के पिता को लूट लेता है और कम लूट पाने के गम में बहू की हत्या कर देता है। धर्मगुरु "यत्र नारी पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" सिखाता है और किसी श्रद्धालु स्त्री का चीरहरण करता है या सेक्स रैकेट चलता है। आप ईशा मसीह की शिक्षाएं पढ़ के निकलता है और पडोसी को प्रताड़ित करता है और उसकी उन्नति को अपना अपमान समझता है। अब आप ही बताओ ऐसे समाज को वर्तमान नेताओं से बेहतर मिलना चाहिए? उपरोक्त कोई चीज किसी नेता ने हमें नहीं सिखाई, लेकिन हमने तो उसके बचपन से ही उसे ट्रेनिंग दी है। अन्ना बेचारे ठहरे सिपाही उन्हें समाज की अच्छी संगत मिली। वरना वो भी दिग्विजय सिंह की तरह किसी अन्ना के लिए अनाप शनाप और नासमझ आरोप लगा रहे होते। या विभिन्न तरह के घोटाले कर किसी राष्ट्रीय पार्टी के मुख्य वक्ता होते। ऐसे नेताओं को पसंद करने वाला, उनसे लाभ लेने वालो के अलावा, कोई नहीं होता।
घूम फिर कर एक समिति बनी जिसे सत्ता और अन्ना एवं उनके अच्छे सहयोगियों द्वारा मान्यता प्राप्त हुई। और इस समिति से आम इंसान को कोई शिकायत नहीं। फिर अचानक वर्षों पहले की बातचीत का ब्यौरा निकलता है, कुछ सुलझे नेताओं की प्रशंशा का भूत दुम उठाता है और चारो ओर से अन्ना और समिति के लोगो को घेरने और बदनाम करने की फितरत निकल पड़ती है। ये समझना मुश्किल हो जाता है कि आरोपी इतने मूर्ख हैं या आम इंसान को इतना मूर्ख समझते हैं कि उनकी कही हुई बात अटल सत्य मालूम पड़े, शेष मिथ्या। जो CD आज शांतिभूषण का सर फोड़ रही है उसे मीडिया तक पहुचने के लिए इतना इन्तजार क्यूँ करना पड़ा? जब अन्ना ने आमरण अनशन शुरू किया था तब उनके दिमाग में ये बात न रही होगी कि जो बिल पास होगा उसमें अनुसूचित जाति के लोगो को घपले करने की सुविधा न होगी सिर्फ सामान्य वर्ग के लोग ही घोटाले कर सकेंगे। लेकिन अचानक कब्र से बाबा आंबेडकर का भूत टपकता है। और कहता है कि समिति में जब तक अनुसूचित जाति का कोई प्रतिनिधि नहीं होगा तब तक समिति बेबुनियाद है। ऊपर बैठे बाबा आंबेडकर देश के तमाम मूलभूत अनुसूचितों की बेबसी को अपने आंसुओं से उनकी झोपड़ी गीली कर बढ़ा रहे होंगे। और उनका नाम लेकर नोटों के बिस्तर तोड़ने वालों के सिरहाने खड़े होकर पंखा झलने का नाटक करते होंगे। संविधान समिति में दलितों के अनुभव को जिए इंसान की जरूरत थी और आंबेडकर से बेहतर इंसान न हो सकता था सो वे रहे समिति में।

इतिहास के पन्नो को पलटने पर पता चलेगा कि, जिस देश को आजाद कराने के लिए राष्ट्र भक्त क्रांतिकारियों और ईमानदार नेताओं से गली चौराहे पटे रहते थे आजादी मिलने के बाद गाँधी की तरह गौड़ हो गए। और जगह ली तमाम भ्रष्ट जमींदारों और व्यापारियों ने (हास्यपूर्ण विस्तार के लिए कृष्ण चंदर कृत "एक गधे की आत्मकथा" पढ़िए), जिनका एक मात्र उद्देश्य लूट था। नेहरु पटेल अंगरेजों से लड़ सके, देश विभाजन को भी झेल गए, लेकिन इन लुटेरों को न सम्हाल सके। आज हालात बदले नहीं हैं, आज तो आजादी की लडाई भी ये लुटेरे लड़ लेते हैं। जैसा कि अन्ना के अनशन सुरु होते ही दिखने लगा था। शुक्र है तमाम दिलेर समर्थकों का कि अभी तक इनकी जडें इस मंच पर न जम सकीं। लेकिन इनका भय हमेशा रहेगा। और हर घर में है ये दीमक, सो जिस दिन ये लोकपाल विधेयक को लगी, हमें फिर एक अन्ना कि जरूरत पड़ेगी।

इस तरह लोकपाल विधेयक आते रहेंगे, संस्थागत बीमारियों का वैकल्पिक उपचार होकर व्यर्थ होते रहेंगे, जब तक कि राष्ट्र का हर व्यक्ति जिम्मेदार और ईमानदार न होगा। संस्थाओं की बीमारी अन्ना मिटायेंगे, हम कोशिश करें अपने घर की बीमारी मिटाने की।


to be completed/modified...

Saturday, April 16, 2011

जग छूट चला रब रूठ चला,
जीवन की आस लुभाए न
तू दूर गया दिल टूट गया
ढाँढस अब कोई बंधाये न
कुछ लुटा दिया कुछ मिटा दिया,
कोई लेन देन राह जाये न
सब झूठ हुआ अब सांच कहाँ,
करतब दुनिया दिखलाये न
जग जीता चाहा खुद से हारा
क्या हुआ खुदा समझाए न
ऊपर वाले ने खेल रचे क्यूँ
जब नियम हमें बतलाये न
गिला हो क्या क्यू हो शिकवा
जब शर्म ही हमको आये न

ram

साम्यवचन

विरह हो गर जीवन में तो, प्रेम समझ में आये
खुले आँख घड़ियाँ रहते गर, दुखद स्वप्न डरपाए

साहस हो जग से लड़ने का, विपदा खड़ी रुलाये
अंकुश रक्खा गर भावोँ पर, कसमे वादे भरमायें

विश्वास अटल हो अपनो पर, तो दुश्मन लाग लगाये
जीवन जीना गर कला बने जो, मौत का खौफ सताए

स्वीकृत हो गर स्वयं की त्रुटि, अपनो से घृणा लुभाए
स्वच्छ रहे जो दिल अपना तो, कोई कभी छल पाए न।
ram

Monday, April 11, 2011

मासूम बचपन पर गिद्धों की निगाह (दैनिक जागरण)

कानपुर, प्रतिनिधि : बच्चों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। मासूम बचपन पर इन 'गिद्धों' ने इस तरह निगाह गड़ा रखी है कि बच्चे स्कूल से घर तक, कहीं भी महफूज नहीं हैं।

नगर में वहशीपन की शिकार दिव्या, नीलम, वंदना, आकांक्षा, किरन, प्रीती जैसी लड़कियों की फेहरिस्त तो लंबी होती जा रही है। इसके साथ ही मासूमों का भी बचपन शहर में खतरे से खाली नहीं रह गया है। सितंबर 2010 में स्कूल में दिव्या संग हुआ अमानवीय कृत्या लोग शायद ही भूल सकेंगे। मासूम संग स्कूल में हुए दुष्कर्म के बाद उसकी छोटी बहन में इतनी दहशत है कि उसने स्कूल से ही मुंह फेर लिया। नवंबर में बर्रा में एक ट्यूशन पढ़ाने वाले वहशी ने मानव अंग पढ़ाने के नाम पर मासूम को शिकार बनाने की कोशिश की। 2011 जनवरी में चकेरी के एक स्कूल में गेम्स टीचर ने प्रयोगात्मक परीक्षा के नाम पर स्कूल में छुंट्टी के दिन बुलाकर गलत काम किया। इसी दिन नौबस्ता में एक डांस टीचर ने कक्षा तीन के मासूम को कई दिनों तक हवस का शिकार बनाया। अप्रैल में कार सवार दरिंदों ने 12 साल की मासूम को अगवा कर अपनी हवस मिटाई। इसी तरह बिबियापुर में कक्षा एक की बच्ची संग दुष्कर्म हुआ। इन सभी घटनाओं में शिकार मासूमों को हवस का शिकार बनाने वाले उन पर काफी समय से निगाह बनाये हुए थे।


शाबाश इंडिया :(