Saturday, February 22, 2014

दहेज़

इंटरमीडिएट में पढ़ाई करते वक्त हमारे स्कूल में एक मास्टर साहब हुआ करते थे, भिखारीलाल कुशवाहा। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पूर्व क्षात्र थे सो उत्तर भारतीय ग्रामीण परिवेश (जहां लोग दसवीं, बारहवीं की परीक्षा गणित विषय में प्रवीणता के साथ पास कर लेते हैं किन्तु 1/1 कितना होता है नहीं मालूम होता।) की तुलना में बेहतरीन अध्यापक थे. गणित अपने सर पर बालों की संख्या से ज्यादा वर्षों तक पढ़ा चुके थे. निरंकारी थे, एवं ऐसा ही उनकी अभिव्यक्तियों से भी मालूम पड़ता था. दूसरा निरंकारी पैर छुए तो वो भी वैसा ही करते थे. किन्तु हमारी वैसी क्रिया की प्रतिक्रिया की व्युत्पत्ति शायद तब तक निरंकारी संघ में न हुई थी. यूँ तो "दहेज़ लेना और देना पाप है" हमारी नैतिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में दूसरी-तीसरी कक्षा में ही आ गया था, किन्तु हमें इस ज्ञान की सार्थकता हमारे इन्ही "गुरु जी" ने समझायी थी. बच्चे अगर दहेज़ लेने-देने में सक्षम होते तो शायद हमें दहेज़ उन्मूलन सम्बन्धी ज्ञान उस कच्ची उम्र में न झेलना पड़ता। वो दिन भी आया जब हमारे एक सहपाठी मित्र को पूछना ही पड़ गया "सर, आप तो दहेज़ प्रथा का विरोध करते थे, फिर आपने अपने बेटे की शादी में इतना सारा दहेज़ क्यूँ ले लिया?". उनका जवाब था कि लड़की के घर वालों ने अपनी लड़की को दिया है, हमें थोड़े दिया है. दूसरे ऐसे ही तमाम जवाब जानने के लिए हरिशंकर परसाई जी के व्यंग, जैसे "आवारा भीड़ के खतरे", खंगालें……

कुछ 15 वर्षों बाद हमारी बारी आयी और हमने पाया कि जितना संघर्ष जनसंख्या विस्फोट की कगार पर खड़े देश में रोजी रोटी के जुगाड़ के लिए नहीं करना पड़ता उतना अपनी शादी में दहेज़ रूपी लेन-देन रोकने के लिए करना पड़ा. लेने वाले और देने वाले दोनों ही लेन-देन पर आमदा दिखे। हमारी बात सुनने के लिए दोनों ही राजी न थे. हमें यहाँ तक कहना पड़ा कि "आज तक न कोई दहेज़ रूपी सुरसा का मुंह भर पाया है, और न किसी सुरसा का मुंह भरा है.", "अगर आप किसी भी प्रकार का दहेज़ रूपी लेन-देन करते हैं तो इसका सीधा मतलब होगा कि आप मेरे मुंह में जूता मार रहे हैं." आदि. फिर भी, हमें चूतिया (इससे बेहतर शब्द नहीं सूझ रहा) समझने वाले लोग दोनों पक्षों से थे. ये वही लोग हैं, जो कल हमारी शिक्षा एवं समझ का गुणगान करते फिरते थे. सहयोग के नाम पर अनर्गल बड़बोलापन एवं कुंठित विचारों के सिवा शायद ही कुछ मिला। छल, फरेब एवं धूर्तता पूर्ण आडंबर, सिद्धांतों पर भारी पड़ रहे थे. शादी के नाम पे हर मौकापरस्त ने हर सम्भव आर्थिक शोषण किया। ऐसे प्रतीत होता था जैसे हमारे हाथ पारस पत्थर लग गयी हो और हम दुनिया की गरीबी ख़त्म करने अवतरित हुए हैँ. ऐसी परिस्थितियों में शोध क्षात्र जैसे दोयम दर्जे का प्राणी होते हुए भी हमने मित्रों से ऋण लेकर दहेज़ विहीन शादी करने का दुस्साहस कर श्रेष्ठ भारतीय समाज के सम्मुख अपनी मूर्खता का ही परिचय दिया.   



हम उन समस्त प्रियजनों का अभिनन्दन करते हैं जिन्होंने इस अनुष्ठान को सम्पादित किया एवं उत्साह पूर्वक अंशभागी हुए

4 comments:

  1. जबर्दस्त अभिव्यक्ति है। कुछ 'ससुरों' को पढवाता हूं। :-)

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  2. जिस दिन हम dualism (हिंदी में कहना थोडा अभद्र लगेगा) छोड़ देंगे उस दिन लगभग सारी सामजिक समस्याओं का समाधान अपने आप हो जायेगा। Well done...congratulations!

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  3. dualism से आप का अभिप्राय अगर दोगलेपन से है तो सम्भवतः मैं आप से सहमत होऊँगा। ' अभद्र दिखने ' के मामले में असहमत। हार्दिक धन्यवाद

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  4. Well done!! Great example. BTW I am also from ALD district and in our area those not accepting dowery are thought as having some fault in them as a person(probably you know how they treat/talk about it). I hope More of us can learn from your example and set it for others too.

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