Wednesday, February 13, 2013

गति

इस बार किस्मत से सर्दियों में अवकाश मिल जाने के कारण सोचा शादी की तैयारियां कर डालते हैं, बस तीन महीने ही तो बचे हैं, उम्र भी हो रही है और अब नौकरी की भी फ़िक्र नहीं। गाँव पंहुचा तो एक अलग ही किस्म की गर्मी थी उधर, हर कोई घर पर खाने पे बुला रहा था, सब जगह इज्जत मिल रही थी, लोग तमाम मुद्दों पर मेरी सलाह ले रहे थे, इन सबसे अलग हमारी दादी की रगों में खून की जगह बहता गर्म लावा समझ से परे था। एक सप्ताह बीतते बीतते सब सामान्य हो गया, दादी की प्रसन्नता छोड़। एक दिन जब छत पर बैठे दादी के दुलार का रस पान कर रहा था तो पास बैठी स्वेटर बुनती माँ ने धीरे से कहा, अम्मा चाहती हैं उनको कुम्भ स्नान करा लाओ। नजर दादी के चेहरे पर गयी तो उनकी अधीर आँखों ने कहा 'मेरा बेटा, हमारी तुमसे पहली और अंतिम इक्षा बस इतनी ही है। हमको गंगा स्नान करा लाओ तो हम चैन से मरें।' मेरा दिल उस बेचारगी पर सिहर उठा, और शायद घर में उस समय मैं ही था जो उनकी इस इक्षा को पूरी कर सकता था। यूं  तो मुझे गंगा की दुर्गति पर व्यथा और धर्म के व्यापार पर असीम अनिष्ठ थी पर दादी का उत्साह मेरी घृष्टता पर विजय प्राप्त कर चुका था। मौनी अमावस्या का स्नान पक्का हुआ, रेल में आरक्षण नहीं मिल सका और बस का आवागमन उनके स्वास्थ्य के लिए ठीक न समझ दुर्गति पूर्ण साधारण डिब्बे की मारामारी पूर्ण यात्रा पूरी की। इलाहाबाद से शिक्षा लेने के कारण तमाम प्रशाशनिक बाधाओं के बावजूद संगम पहुँच गए एवं  करोड़ो श्रृद्धालुओं के साथ स्नान हुआ। पहली बार किसी बुजुर्ग की इक्षा पूरी करने पर संगम स्नान से ज्यादा पुण्य मिलता प्रतीत हुआ।

रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ के हम प्रत्यक्ष दर्शी थे। लोग बावले हो गए थे और प्रशाशन शैतान। थोड़ी देर बाद सब शांत था। मेरी दादी को मैं दीवार के पास ले गया था अतः कुछ चोटों के अलावा उनको खास क्षति न पहुची थी, पर वो सहमी बहुत थीं। भगदड़ के केंन्द्र बिंदु ओवर-ब्रिज एवं उसके आस पास की  जगह को खाली करा लिया गया था एवं किसी को उस जगह जाने की अनुमति न थी, किन्तु मैं उन सीढ़ियों के बीचो बीच बैठा था। चंद पुलिस वाले घायलों और लाशों को उठा रहे थे। उनमे से एक मेरी भी थी....... 

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