Tuesday, August 30, 2011

भ्रष्टाचार, अन्ना, समाज, नेता और राष्ट्र (भाग 2)

भारत का शायद ही कोई नागरिक आज ऐसा होगा जिसे अन्ना, उनके भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और इस अभियान के समर्थन में उनके जारी अनशन से वाकिफ हो जो विदेशी भी नावाकिफ होंगे उन्हें असंवेदनशील कहा जा सकता है शायद ही दुनिया का कोई कोना हो जहाँ इस अभियान की आवाज़ पहुच रही हो ये अभियान राष्ट्रीय परिप्रेछ्य में है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय बातों को ये सिर्फ ये कहकर ख़त्म करना होगा कि "गांधी के स्वतंत्रता आन्दोलन की तरह, अहिंसक होने के कारण, ये भी एक अनूठा आन्दोलन है राष्ट्र और इससे बाहर के हिंसक और उन्मादी आंदोलनों के लिए एक पाठ भी"

पिछले अंक का समापन मैंने इस बात के साथ किया था कि ऐसे लोकपाल बिल आते रहेंगे, व्यर्थ होंगे और जाते रहेंगे। हमें अपने अन्दर झांकना होगा और समाज को बेहतर मूल्यों से अभिमंत्रित करना होगा वैसे कोई भी नियम क़ानून इसलिए व्यर्थ नहीं होता कि उसमे खामियां हैं, बल्कि इसलिए होता है कि उन खामियों का इस्तेमाल हम रचनात्मक कार्यों के लिए कर हानिकारक कार्यों और स्वार्थ्य पूर्ति के लिए करते हैं और कुछ हद तक इसी का नाम है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचारी मतलब भ्रष्ट है आचरण जिसका। सिर्फ किसी काम के लिए या मूलभूत सुविधाओं/अधिकारों से वंचित कर उसकी पूर्ती के लिए किसी से धन ऐंठने भर को भ्रष्टाचार ठहराना अंधे का हाथी ही है जिस आचरण से समाज के विचारों, विकल्पों और उसके सुगठन पर दूषित असर पड़ता हो, जिस कर्म से कोई समाज दुर्बुद्धि हो कुमार्ग की ओर चल दे, जिस कर्म से राष्ट्र हानि और जीवन शैली का पतन हो, जिस कर्म से समाज का अकारण विघटन होने लगे उसे भी भ्रष्टाचार ही कहा जा सकता है

तयशुदा तिथि के अनुसार अन्ना का अनशन शुरू हुआ, प्रशाशन को जो मूर्खताएं करनी थीं कीं। बंदी बनाने से लेकर सारी शर्तें स्वीकार करने तक सबकुछ अन्ना हजारे के अनुरूप हुआ और कुछ भी सरकार के लिए बेहतर न हो सका। सत्ता पक्ष ने अंतिम सांस तक आन्दोलन को न तो सहजता से स्वीकार किया और न ही उसकी गंभीरता को समझने का प्रयास किया। विपक्षी दलों ने भी विषय की जितनी उपेक्षा की जा सकती थी की। किसी भी जिम्मेदार राजनेता को वो बात समझ न आ सकी जो सामान्य अशिक्षित नागरिक को भी आसानी से समझ आ सकती थी। बड़प्पन(लाचारी) विपक्षी दलों का, कि कुछ निरंकुश क्षेत्रीय दलों को छोड़ कर किसी दल ने अपने विरोधियों से निबटने के कांग्रेसी/सरकारी तरीके को नकारा नहीं तो सहयोग भी नहीं दिया। कुछ दिनों पहले की अन्ना और अहंकारी राजनेताओं के बीच की लड़ाई बढ़कर आमआदमी और सरकार के बीच तक पहुँच गयी। "परिवर्तन प्रकृति का नियम है" को भूलकर "संविधान और संसद की सर्वोच्चता और उसकी रक्षा" जैसी बातों की राजनीति सदा की भांति चलती रही.

संविधान एक समाज को सुचारू रूप से चलने का साधन न होकर जैसे सर्वशक्तिमान ईश्वर के वचन हों। समाज और देशकाल में परिवर्तन होगा तो संविधान में परिवर्तन करना ही पड़ेगा। ६० साल पहले लिखा गया संविधान उस समय के समाज के परिद्रश्य में बनाया गया था, वो उस समय के भविष्य की परिकल्पना थी। आज के परिद्रश्य में हम पर परिपक्व चिंतन की मजबूरी और जिम्मेदारी है, ताकि हम बेहतर कल की परिकल्पना कर सकें। तकनीकी से लेकर मानव व्यवहार तक कोई चीज ६० वर्ष पूर्व, जैसी आज है, परिकल्पित भी न रही होगी।

रही संसद की बात तो इस आन्दोलन ने सिखा दिया है कि जहाँ क्षण भर में चेहरे बदलते हों लोग ५ वर्षों में सिर्फ एक बार, वो भी वैकल्पिक, निर्णय नहीं लेंगे बल्कि समयानुरूप जब आवश्यक होगा और उसे अपने चयनित प्रतिनिधि को अपने वैचारिक सुझाव देने होंगे तो देगा। बल्कि उस निर्णय में संशोधन भी कर सकेगा तो और भी बेहतर होगा। संसद को उस सुझाव को सुनना समझना ही नहीं उस पर नीतिसंगत अमल भी करना होगा।

हम सब जानते हैं कि राजनेताओं की मनमानी न चली, अन्ना के अनशन को वैश्विक समर्थन और सहयोग मिला। अन्ना हजारे, जिन पर ६ महीने पहले सिर्फ बुद्धिजीवी वर्ग विचार व्यक्त किया करता था, लोगो के दिल की धड़कन बन गए। आन्दोलन की लोगो के दिलों पर पैठ के लिए ये उदाहरण ही काफी होगा कि जिस देश में क्रिकेट एक धर्म है उसकी शायद ही इन दिनों कोई चर्चा हुई हो और बहुतों को तो ये भी नहीं मालूम होगा कि भारतीय टीम इंग्लैंड की टीम से ०-४ से टेस्ट मैच हारी है। समाज के हर वर्ग में हलचल थी ये बताना व्यर्थ है। १२ दिन के अनशन ने हर वो विचार बदला जो दकियानूस था और तर्कसंगत न था।

इस सारे घटनाक्रम ने तीन बातें स्पष्ट कर दीं एक "हमारा वर्तमान प्रधानमन्त्री बेहद लाचार, मजबूर और गौरवहीन है।" दूसरा "हमारा कथित भविष्य का प्रधानमंत्री गैरजिम्मेदार, विवेकशून्य और अहंकारी है." तीसरा "प्रधानमंत्री के अधिकाँश सहयोगी निरंकुश, असामाजिक और कथित रूप से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं/थे।" एक बात जो मुझे दिखी वो ये कि हमारे समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को प्रस्तुत करने के लिए कुछ पत्रकार और कुछ वकील ही हैं, ये परिद्रश्य बदलना होगा.

खैर घूम फिर कर बिल पारित हुआ और संसद ने छोटा ही सही लेकिन सकारात्मक और वर्तमान मांग को ध्यान में रखकर कदम उठाया। संसद की कार्यवाही देखकर कोई भी साधारण मनोविज्ञानी कह सकता था कि, अनुपस्थित लोगो की तो भूलो, उपस्थित माननीय सदस्यों में शायद ही कोई उस बहस में उत्साह से हिस्सा ले रहा हो। बहस तो बहाना था लोग गंभीर बिन्दुओं पर बात न कर शरद यादव के बडबोलेपन और बेकार के भाषण पर तालियाँ पीट और अट्ठाहस लगा रहे थे। सच पूछो तो किसी बिंदु के समर्थन का मतलब बहस की व्यर्थता थी और विरोध का किसी में साहस न था। बेहतर सुझाव तो राहुल गाँधी की भांति सदन से नदारद थे।

अन्ना
और उनकी टीम को इस अभियान में सफलता तो मिली लेकिन जन सैलाब घटते ही टीम के सदस्यों का दमन शुरू हो गयादेश के नागरिक इस बात पे खुश हैं कि अब देश भ्रष्टाचार मुक्त हो जायेगा। कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि जन लोकपाल बिल जादू की छड़ी नहीं है जो भ्रष्टाचार को मिटा दे। ये बात शायद हर भारतीय जानता है, लेकिन वो ये भी जानता है कि जादू की छड़ी के इन्तजार में हाथ में हाथ रखकर कर बैठे रहना मूर्खता है। पहल तो करनी ही होगी। वैसे भी जादू की छड़ी आने न पाए इसके लिए ही हमारी सभ्यता ने हजारों वर्षों का अविश्वसनीय क्रमगत विकास किया है।

देश के सामान्य समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को अगले अंक में चिन्हित करेंगे.....

Tuesday, August 2, 2011

मेहमान

दिन भर की चहल पहल से फारिग हो थोडा आराम करने का दिल चाहा तो मेहमान कक्ष में ही ऊंघने लगी। आज घर में एक खास मेहमान आया था, मेरी थकान प्रमुखतः इस मेहमान के इन्तजार में रात भर न सोने के कारण थी, बाकी कुछ काम और कुछ इस ख़ास मेहमान की खातिरदारी। मेहमान की उपस्थिति भी मेरी नींद को रोक न सकी और मैं ढेर हो गयी। झपकी ली ही थी कि दोनों गालो में एक के बाद एक मखमली सा एहसास छू गया। मस्तिष्क थोड़ी देर के लिए सक्रिय हुआ, उस अलबेले ने अमर प्रेम की पहली निशानी सुपुर्द कर दी थी, वो दिल जो खामोस हो मेरी जीवन रेखा को लम्बा कर रहा था अचानक जोरों से छटपटाने लगा। किसी दर्द से बेबस नहीं, उस अनोखे समर्पण के एहसास और उमंग को सम्हाल न पा रहा था, बस। नींद हिरनी की तरह कुलांचे भरती हुई कोसों दूर निकल गयी थी। मैं समझ न पा रही थी की इस एहसान का शुक्रिया कैसे अदा करूँ। आज जैसे लग रहा था जीवन का मकसद पूरा हो गया। आज ऊपर वाले ने वो दे दिया जिसकी स्वप्न में भी कल्पना न की थी। आँखें मूंदे थोड़ी देर लेटी रही, पर रहा न गया, आँख खोली तो पाया की मेहमान की आँखों में अनोखी शरारत और मेरे चेहरे पे जन्नत सा सुकून हमारे अमर प्रेम की दास्ताँ लिखने को कातर हुआ जा रहा है।

थोड़ी देर पहले ही तो हम लोग गंगा किनारे शाम की सैर को निकले थे। वो भी चुप थे और मैं भी खामोश थी। अन्दर से आवाज़ तो निकलती थी लेकिन गले से बोल ना फूटते थे। उनका हाल मुझसे जुदा न था। कितनी सारी बातें, कितने अरमान हिलोरें मार रहे थे लेकिन कुछ भी बाहर तो न आता था। जी करता था हांथो में उसका चेहरा ले आँखों में आँखें डाल इस पावन गंगा में उतर जाऊं। अजीब ख़याल था। किनारे पहुचे तो वो गंगा की ओर और मैं विपरीत दिशा में मुह कर के बैठे थे। प्रकृति की छटा निराली थी ये एहसास तो बहुत देर से हुआ, मुझे तो बस ये ही ख़याल था की उसके हाथ की दूरी मेरे हाथ से २ सेमी से ज्यादा न रही होगी। कितनी मन्नतें मना डालीं एक स्पर्श की चाह में, माथे पर पसीने की बूंदे छलक आयीं लेकिन ये दूरी तय न हो रही थी। अचानक वो मेरी गोद में सर रख उगते हुए चाँद की सराहना करने लगा। मेरा दिल उछल कर गंगा में छलांग लगा बैठा। थोड़ी देर बाद जब उखड़ी सांसें सामान्य हुईं तो मुझ पर एक मीठी ईर्ष्या का लेप चढ़ गया। मैं इतने सपने संजोने लगी जितने आज तक देखे भी न थे। प्राण पुकारते थे जब भी निकलें बस इसी अवस्था में। घंटों बीत गए होंगे, उसके सर का भार जैसे फूल से भी हल्का था। सैर ख़त्म कर घर वापस जाने की बात निकली तो जैसे शरीर में जान ही न रह गयी। मेरी प्राणप्रिय गिलहरी हमेशा की भांति मेरी हर हलचल की गवाह थी लेकिन आज ये पहला मौका था जब मैं अपनी भावनाएं उसके साथ साझा नहीं कर पा रही थी।

राम