Friday, August 9, 2013

समाज, विज्ञान और धर्म (तीन वरदान, तीन अभिशाप )

पृथ्वी की उत्पत्ति, प्रचलित अनगिनत सिद्धांतों में श्रेष्ठतम सिद्धांतों की गणनानुसार, कुछ 4.54 अरब वर्ष आंकी जाती है। मनुष्य के उद्भव की आयु, लगभग बीस से पचास लाख वर्ष, पृथ्वी की आयु की तुलना में नगण्य समझी जा सकती है। यूँ तो हमारा सौर परिवार भी ब्रम्हांड की तुलना में नवजात ही है, किन्तु हमारी चर्चा का विषय मानवोत्क्रान्ति की कथा है; अतः विचार विमर्श की दिशा उत्तरोत्तर होगी। इन बीस लाख वर्षों में से मानव की व्यवहारगत आधुनिकता का काल पचास हजार वर्ष से भी कम है। दैनिक गतिविधियों के लिए अपरिहार्य आधुनिकता के प्रमाण 10 हजार वर्षों से पुराने नहीं मिल सके।

साधारण समझ ये जानने के लिए पर्याप्त है कि इस क्रमगत विकास के प्रथम सूत्र, पुनरोत्पादन, के लिए समाज का निष्पादन अभीष्ट है। समाज से मेरा अभिप्राय एक ही प्रजाति के जीवों के उस समूह से है, जो आपसी मेल जोल और सद्भाव से जीवन-संरक्षण, भरण-पोषण एवं पुनरोत्पादन जैसे मूलभूत कार्यों को संचालित करता है। जीवों के क्रमगत विकास का सिद्धांत समसामयिक श्रेष्ठ और निकृष्ठ सभी सभ्यताओं के लिए कौतूहल का विषय रहा है। किन्तु जो व्याख्या लगभग 150 वर्ष पूर्व चार्ल्स डार्विन ने की, वो आधुनिकता के इस दौर में भी सर्वमान्य है। क्रमगत विकास की उसी निरंतरता में मानव ने आवश्यकता रूपी विचार का पहला बीज बोया। जब आवश्यकता ने उत्तरजीविता को सुद्रढ़ कर व्यवहार में ला दिया, तब तर्क का विकास हुआ, जिसने आगे चल कर ज्ञान और फिर विज्ञान का रूप लिया। तार्किक संगति पर आधारित ज्ञान मानव इतिहास जैसा पुराना नहीं तो बहुत नया भी नहीं है। ज्यामिति जैसे जटिल विषय का ज्ञान पश्चिम को 300 ईसा-पूर्व यूक्लिड के समय से ही था तो पूर्व में समानांतर पाणिनी से लेकर आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रम्हगुप्त जैसे अनेक महान गणितज्ञों एवं खगोलविदों ने विभिन्न आयामों में उत्कृष्ट कार्य किया था। आध्यात्म विज्ञान ग्रीस में 600 ईसा-पूर्व थेल्स, सुकरात, प्लेटो एवं अरस्तु जैसे महापुरुषों के कन्धों पर सवार नयी ऊँचाइयाँ छू रहा था तो धर्म के सूत्र पंद्रह सौ ईसा-पूर्व मूसा, जरथुस्त्र के समय में ही अंकित किये जा चुके थे। विकसित समाज के प्रमाण तीन हजार ईसा-पूर्व की बेबीलोन की सभ्यता में चिन्हित किये जा चुके हैं। पूर्व तो धार्मिक और आध्यात्मिक साधना का केंद्र बिंदु रहा है एवं ऋषियों एवं विचारकों की परम्परा किसी काल की मोहताज नहीं रही। सनातन धर्म का उद्भव ज्ञात नहीं, परन्तु वैदिक काल की गणना कुछ तीन हजार ईसा-पूर्व की मान्य है। उपरांत हिन्दू ,जैन, बौद्ध एवं सिख धर्मों ने उत्कृष्टता के आधार पर दुनिया के जन मानस में स्थान पाया।

उपरोक्त उदाहरण ये बताने के लिए प्रस्तुत किये गए थे कि हालांकि आज से 10 हजार वर्ष पूर्व का मानव लगभग अपरिपक्व था, परन्तु 5 हजार वर्ष पूर्व भी समाज, विज्ञान और धर्म अपने उद्गम से परिवर्तन का लम्बा सफ़र तय कर चुके थे। संगठित समाज के प्रमाण उतने ही पुराने समझे जा सकते हैं, जितने कि आग पर नियंत्रण (लगभग 1 लाख वर्ष पूर्व), किन्तु मानव के त्वरित उत्थान की कहानी का आरम्भ पहिये के आविष्कार (15000 - 75000 वर्ष पूर्व) के साथ नहीं होता। गति विकास का पर्याय है किन्तु ये गति लम्बे समय तक जीवन की क्षमताओं तक ही सीमित रही, जबकि ग्रहों की गति की गणनाएं (गलत ही सही) 500 ईस्वी से पूर्व ही आर्यभट को ज्ञात थीं। धर्म की उन्नति का प्रारब्ध देर से हुआ लेकिन अपनी श्रेष्ठतम ऊंचाइयों को इसी ने सर्वप्रथम प्राप्त किया। विज्ञान जब मानव की सीमित क्षमताओं का गुलाम था तभी धर्म के सारे आधुनिक एवं उत्कृष्ट सिद्धांत निष्पादित किये जा चुके थे। धर्म के इस विकास की दो मूल वजहें स्वयं सिद्ध एवं बहुप्रचलित हैं। एक ये कि धर्म का विकास मूलतः व्यक्तिगत प्रयासों से हुआ, जबकि विज्ञान के विकास के लिए सामूहिक एवं संस्थागत प्रयासों की आवश्यकता होती है। दूसरा ये कि समाज में व्याप्त अराजकता को नियंत्रित करने के लिए धर्म से बेहतर उपकरण न तो उस समय उपलब्ध था और न आज उसका कोई प्रतिस्थानिक ज्ञात है।

आज से 400 वर्ष पूर्व तक विज्ञान की समझ चंद ज्ञाताओं तक सीमित और व्यवहारिक मात्र थी। 17वीं शताब्दी में न्यूटन के गति एवं गणना के सिद्धांतो ने विज्ञान को नयी गति दी। वहीं धर्म का उत्थान बुद्ध, महावीर, ईशा, मुहम्मद, जरथुस्त्र, व्यास, कन्फ़्यूशियस, लाओत्से एवं नानक जैसे चंद मानवीय प्रतीकों तक सदियों पहले ही सिमट चुका था। न्यूटन से प्रारंभ होकर विज्ञान का विकास अगले 200 वर्षों में अभूतपूर्व गति से हुआ एवं आधुनिक वैज्ञानिकों की संख्या पूर्व में भारतीय मनीषियों की संख्या से विशाल हो चली।

समाज, मानव प्रजाति का क्रमिक विकास की ओर प्रथम कदम था। वैसे समाज सिर्फ मानव जाति की ही आवश्यकता नहीं है। एक कोशिकीय जीवाणु से से लेकर व्हेल जैसे विशालतम स्तनपायी भी अपने किस्म के समाज में रहते हैं। हिंसक, मांसाहारी जानवरों के समाज बहुधा परिवार तक ही सीमित होते हैं, तो शाकाहारी जीवों के विस्तार की सीमा नहीं होती और अक्सर अंतर्प्रजातीय समूह भी एक साथ निवास करते हैं। समाज की परिकल्पना प्रजातियों से पहले प्रकृति ने ही कर ली थी, तथा इसके प्राथमिक विकास के लिए किसी बौद्धिक दक्षता की आवश्यकता नहीं होती। इंसान ने अपनी बौद्धिक दक्षता से अन्य प्रजातियों की तुलना में बेहतर समाज की परिकल्पना की। आपसी सहयोग, उत्साहवर्धन, सामूहिक प्रयत्न के आधार पर इंसान न सिर्फ एक विकसित समाज का निर्माण करने, बल्कि एक सबसे सुरक्षित वातावरण तैयार करने में सफल रहा। एक सुगठित एवं जिज्ञासु समाज के बिना न तो विज्ञान का विकास संभव होता और न ही धर्म का। शिक्षा, संस्कृति, कला, साहित्य, योग, कृषि, भाषा, संविधान का विस्तार समाज के सतत प्रयास का ही परिणाम है। आज गहनतम और गूढ़तम भावों एवं अभिव्यक्ति को समझने और व्याख्या करने की क्षमता मनुष्य के पास है।

औद्योगिक क्रांति के प्रारंभ में साईकिल के आविष्कार से चलकर आज हमारे कृत्रिम उपग्रह अंतरग्रहीय दूरियों को बौना कर रहे हैं। सतही नजरिये से देखने पर विज्ञान का एक मात्र उद्देश्य 'गति' नजर आता है। किलोमीटर प्रति घंटे की सामान्य रफ़्तार से चलता मानव आज किलोमीटर प्रति सेकंड से चलते प्रक्षेपण यानों की सवारी कर रहा है। दूरियों के मानक समय के मानकों से एकीकृत हो रहे हैं, यथा नयी दिल्ली से न्यूयार्क की दूरी किलोमीटर की बजाय घंटों में ज्यादा लोग समझते हैं। फोन के आविष्कार के साथ संदेशों के पहुँचने का समय लगभग शून्य हो गया। मौसम की जानकारी से लेकर भूकंप और सुनामी आने तक की भविष्यवाणी की जाती है। पिछले 60 वर्षों के वैज्ञानिक इतिहास की कहानी, कंप्यूटर, आज हर दूसरे व्यक्ति के हाथ में है। इसकी सहायता से संख्याओं के जितने आंकलन कल एक व्यक्ति आजीवन करता उतने आंकलन सेकंड से भी कम समय में किये जा सकते हैं, वो भी बिना किसी त्रुटि के; दुनिया की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जानकारी आपकी उँगलियों पर नाचती है। गणनाएं इतनी अचूक हैं कि भू-स्थैतिक उपग्रहों की सहायता से हवाई जहाज़ों का संचालन जैसे जटिल कार्य तक बड़ी सुगमता से किये जा सकते हैं। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उपलब्ध समस्त लेख आज आप की उंगली से भी छोटे आकार की पेन-ड्राइव में आ जाते हैं। प्रयोगशालाओं में सेकंड के 1 खरब-लाखवें हिस्से की माप, मीटर के 10 अरब-लाखवें हिस्से की, किलोग्राम के 1 खरब-खरब-करोड़वें हिस्से की माप बहुत पहले ही की जा चुकी है। 830 मीटर ऊंची इमारत 'बुर्ज खलीफा' विज्ञान की बुलंदी को ही चुनौती देती प्रतीत होती है। आज हमें ब्रम्हांड में उपस्थित मूलभूत कणों का ज्ञान है, उसका आकार ज्ञात है एवं उसकी उत्पत्ति के तथ्य से हम दूर नहीं हैं। इतना ही नहीं आज चिकित्सा विज्ञान की उन्नति के इस दौर में कोई अगर ये दावा कर दे कि उसने अमृत की खोज कर ली है तो बहुत कम लोग हैं, जो चकित होंगे। कल जिन बीमारियों के कारण देश के देश काल कवलित हो जाते थे, आज वो विलुप्तप्राय श्रेणियों में हैं। जिन बीमारियों की कल्पना भी न होती थी उनका इलाज भी खोजा जा चुका है। यहाँ तक कि आज कृत्रिम ह्रदय तक लगाया जा सकता है। शरीर का ऐसा कोई अंग नहीं है जो प्रतिस्थापित न किया जा सके। "हम क्यूँ हंसते हैं? क्यूँ रोते हैं? क्यूँ दुखी होते हैं? क्यूँ प्रसन्न होते हैं?" इन सभी सवालों के जवाब हमारे पास हैं। माता-पिता के स्वास्थ्य सर्वेक्षण से आने वाली संतति और उसकी आने वाली कई पीढ़ियों के स्वास्थ्य का अनुमान लगाया जा सकता है। जीवों के शरीर के हर अंग की प्रत्येक कोशिका की समस्त कार्यविधियों की सटीक जानकारी है। आगे चल कर हम मशीन से ही देखेंगे, सुनेंगे, सूंघेंगे, स्पर्श, विचार एवं महसूस करेंगे। कंप्यूटर या मोबाइल जैसी उन्नत युक्ति को शरीर के अन्दर स्थापित किये जाने की जरूरत महसूस होने लगी है, जिसका संचालन हम बाह्य माध्यमों से न करके मानसिक सन्देश वाहक तरंगों के माध्यम से करेंगे। आज सोने जाने से पहले और जगने के बाद के ऐसे पांच काम भी आप को गिनाना मुश्किल हो जाएगा, जिसमें आप मशीन का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उपयोग न करते हों। अतः हमेशा से ही आवश्यकता और आविष्कार के बीच एक अटूट सम्बन्ध रहा है और इसीलिये हमारी विज्ञान पर निर्भरता न पहले कम थी न भविष्य में कम होने की संभावना है, बल्कि वो दिन भी आ सकता है जब इंसान मशीनों का शाब्दिक अर्थों में ही नहीं वास्तविक अर्थों में भी गुलाम होगा।

जहाँ तक विज्ञान सतत प्रयास की कहानी कहता है, वहीं धर्म मुख्यतः चंद महापुरुषों का ही कार्यक्षेत्र रहा है। अधिकांशतः जिन विशिष्ट महापुरुषों को किसी धर्म का सबसे बड़ा प्रहरी समझा जाता है उन्होंने किसी धर्म का निर्माण नहीं किया। किन्तु मानव विकास में धर्म का उतना ही योगदान रहा है जितना विज्ञान का, बल्कि धर्म को विज्ञान की सीढी का प्रथम पायदान कहा जा सकता है। एक समय ऐसा भी था जब विज्ञान को धर्म की तुला पर तोला जाता था। धर्म वो पहला माध्यम था, जिसने इंसान को जानवरों से प्रथक कर सभ्यता और बर्बरता के बीच के फर्क को समझाया। वो धर्म ही है जो प्रेम, करुणा और सहिष्णुता की शिक्षा देता है। धर्म और विज्ञान के बीच एक समानता ये भी है कि जिस प्रकार विज्ञान के नियम समस्त संदर्भों में एक सामान व्यवहार करते हैं, उसी प्रकार दुनिया की अलग-अलग सभ्यताओं में विकसित धर्म के विभिन्न प्रारूपों में सन्देश लगभग समान हैं। जीवन का महत्व, संतोष, सदाचार, सत्य, निष्कपटता, चैतन्य, संकल्प, सुवचन, कर्म, प्रयत्न, भक्ति, अविलासिता, ईमानदारी आदि का पालन जैसी शिक्षाएं समाज के लिए आवश्यक नहीं, और विज्ञान के लिए निर्मूल हैं। वो धर्म ही है, जिसने उपरोक्त सन्मार्ग दिखाकर जीव मात्र के उत्थान एवं शांति का मार्ग प्रशस्त किया है। मनुष्य को उसकी कुंठाओं से निकालकर मानसिक रूप से स्वस्थ्य समाज के निर्माण का मार्ग धर्म से होकर ही जाता है। कर्मयोग, भक्तियोग एवं सांख्ययोग जैसे गूढ़ सिद्धांतों का निष्पादन धर्म के ही संरक्षण में हुआ है।

यह बात सच है कि उचित-समाज, धर्म और विज्ञान की संकल्पना से रहित मानव आज उस स्थिति से भिन्न न होता जिस स्थिति में धरा में रहने वाली अन्य प्रजातियाँ हैं। बर्बरता से पूर्ण, भय और संकट के वातावरण में भटकती, जीवन के लिए संघर्ष करती एक और प्रजाति। किन्तु, हमारे क्रमगत विकास को एक भिन्न पहलू से भी देखने की आवश्यकता है। पहला प्रश्न समाज पर: क्या हमारा ये समाज एक आदर्श समाज कहलाने की योग्यता रखता है? आप में से अधिकाँश का उत्तर नकारात्मक ही होगा। कारण बड़े नहीं लेकिन गंभीर हैं। आज समाज में अविश्वास की जडें अकथनीय रूप से गहरी और मजबूत हैं। हर दूसरा आदमी 'दुनिया बड़ी बुरी है' या 'मुझे अपने बाप पर भी भरोसा नहीं' कहता मिल जाएगा। अविश्वास पर विश्वास इतना मजबूत है कि 'बुरा जो देखन मैं चला ..... मुझसे बुरा न कोय' जैसे बलिष्ठ सिद्धांत धूल खाने लगते हैं, और हो भी क्यूँ न ऐसा। झूठ, छल, फरेब, चोरी, छिनैती, हत्या, बेईमानी, शारीरिक-शोषण, भ्रष्टाचार का साम्राज्य चारो और फैला हुआ है। छोटा-बड़ा, राजा-प्रजा, मालिक-मजदूर, नेता-अभिनेता, कृषक-अभियंता, शोषित-शोषक, पीड़ित-उत्पीड़क, रोगी-चिकित्सक हर कोई लूट की गंगा में हाथ धोने को बेताब है। आने वाली पीढी की किसी को परवाह नहीं, और ऐसा कोई आदर्श स्थापित नहीं हो रहा जो प्रशंशनीय हो। बचपन में मिली नैतिक शिक्षा की लाठी माता-पिता और पड़ोसियों के सर फोड़ने के काम आती है। महंगे विद्यालयों में प्रवेश दिलाने मात्र से माता-पिता का बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों का वाहन हो जाता है। चरित्र निर्माण तो व्यभिचार की परिभाषा तक ही सीमित रह गया है। जाति-वर्ण-सम्प्रदाय में विघटित समाज इसी विघटन के दलदल में डूबने को उत्कंठित है। बाल-मजदूरी और युवाओं में नशे का रुझान अविकसित और विकासशील देशों की गंभीर समस्या बना हुआ है। पहले से व्याप्त अशिक्षा के बीच शिक्षा के स्तर में गिरावट समाज का एक प्राणान्तक रोग है। जितना अविकसित समाज उतनी बड़ी दुर्बुद्धि का शिकार। भारत देश में ही दहेज़ हत्या, बलात्कार, महिला-भ्रूण-हत्या के हजारों प्रकरण प्रति वर्ष होते हैं। दुनिया की लगभग एक तिहाई महिलाओं की आबादी नैतिक अधिकारों से वंचित, गुलामों जैसा जीवन जीने को मजबूर है। हर 6 में से एक व्यक्ति रोज भूखा सोता है। ऐसा एक भी दिन नहीं होता, जब दुनिया के किसी न किसी कोने में घोषित युद्ध न हो रहा हो। विकसित देशों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए सम्पूर्ण अफ्रीका को काल के गर्त में धकेल दिया। प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न सम्पूर्ण अफ्रीका आज गृह-युद्ध का शिकार है, और अधिकाँश आबादी अंगभंग से अभिशप्त है। अनेक संघर्षशील देश, विकसित देशों के शक्ति एवं आयुध परीक्षण स्थल बन कर नष्ट हो गए। इराक, वियतनाम, अफगानिस्तान, भारत, पाकिस्तान, कोरिया, लीबिया, सीरिया, सियार-लियोन, काँगो, निगार, अंगोला, सोमालिया, इथोपिया आदि एक बड़ी सूची के कुछ नमूने हैं।

सांप्रदायिक सौहार्द, प्रेम, सहिष्णुता, ईमानदारी, सत्य, निष्ठा, सदाचार तो धर्म के सिर्फ मुखौटे से प्रतीत होते हैं। धर्म के नाम पर भोंडे संस्कारों एवं अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जाता है। साधारण संदेहों को मिटाने में असमर्थ अशिक्षित और कुत्सित मनोवृत्ति वाले धर्मरक्षक नासमझ-जाहिलों को पूर्व और पराजन्मों का भय दिखा व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति करते हैं। मृत्योपरांत क्षुधा-सुख का लालच देकर युवा वर्ग को आतंक का दूत बनाया जाता है। सत्ता सुख के लिए स्वार्थी व्यक्ति धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देते हैं एवं सामूहिक उपद्रव तक का अनुष्ठान करते हैं। धार्मिक पुस्तकों की शपथ लेकर शासकों ने गाँव-नगर-देश भी नष्ट किये हैं। मानव इतिहास में धर्म के नाम पर पश्चिम से लेकर पूर्व तक जितना कत्लेआम हुआ है, वो कल्पनातीत है। समस्त धर्मों की शिक्षा समान होते हुए भी 'सर्वधर्म-समभाव' का अहसास कहीं नहीं होता। ईश्वर के नाम पर लोग नीचतम कुकृत्यों को संपन्न करते हैं एवं उसी को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते हैं।

विज्ञान ने हमारी विकास की गति को तो बढ़ाया है, किन्तु पिछले पचास वर्षों में पृथ्वी ने जैसा उग्र परिवर्तन देखा है वैसा मानवता ने पिछली समस्त पीढ़ियों में भी नहीं देखा। इतने ही समय में दुनिया की आबादी 3-4 गुना बढ़ गयी है। मशीनों ने मनुष्य का स्थान ले लिया है। जैसे-जैसे मशीनों की दक्षता बढी है, वैसे-वैसे मनुष्य स्वास्थ्य और शारीरिक क्षमता की दृष्टि से मायूस होता गया है। उत्पादन बढ़ने से मानव की उपभोग की नियति में भी बदलाव आया है और प्रति व्यक्ति खपत में पिछले पचास वर्षों में सैकड़ों गुना की वृद्धि हुई है। पिछले 10 वर्षों में हमने नष्ट न हो सकने योग्य उतना कचरा पैदा किया है, जितना उससे पहले के पांच सौ वर्षों में भी नहीं किया था। उससे पूर्व नष्ट न होने योग्य कचरे का प्रादुर्भाव ही नहीं हुआ था। विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य ने धरा का असीम दोहन किया है। मानवता का विज्ञान की ओर पहला कदम जंगली जानवरों का शिकार और सुरक्षा के लिए था, जबकि आज विज्ञान ने सुरक्षा के नाम पर विनाश के ऐसे हथियार तैयार कर लिए हैं, जिनके इस्तेमाल से पृथ्वी को अनेकों बार नष्ट किया जा सकता है। 'होम' नामक वृत्तचित्र से लिए गए निम्नलिखित आंकड़े शायद आप तक मेरी बात पहुंचा सकेंगे। " दुनिया जितना अर्थ विकासशील देशों को अनुदान में देती है, उसका 12 गुना सेना के आयुध बनाने में खर्च किया जाता है। दुनिया के पांच सबसे विकसित राष्ट्र 85% आयुध निर्यात करते हैं। पांच हजार लोग प्रतिदिन गन्दा पानी पीने से काल के गाल में समा जाते हैं। एक अरब लोगों को पीने के स्वच्छ पानी की उपलब्धता नहीं है। इतने ही लोग भुखमरी के शिकार हैं। कुल उत्पादन का आधा आनाज मांस या जैव ईंधन उत्पादन में खर्च होता है। चालीस प्रतिशत कृषि योग्य भूमि को गंभीर रूप से क्षति पहुँच चुकी है। एक करोड़ तीस लाख हेक्टेयर भूमि के जंगल प्रति वर्ष नष्ट हो रहे हैं। चार में से एक स्तनपायी, आठ में से एक पक्षी, तीन में से एक उभयचर प्रजातियाँ विलुप्तता की कगार पर खडी हैं। प्राकृतिक दर की तुलना में हजार गुना तीव्रता से प्रजातियाँ ख़त्म हो रही हैं। तीन चौथाई मछली पकड़ने योग्य जगह ख़त्म हो चुकी है। पिछले पंद्रह वर्षों का औसत तापमान उत्तरोत्तर बढ़ा है एवं पृथ्वी की बर्फ की चादर चालीस वर्ष पहले से चालीस प्रतिशत पतली हो गयी है। शरणार्थी शिविर दुनिया के सबसे बड़े शहरों में तब्दील हो रहे हैं।"
'इस्तेमाल करें और फेंक दें' की नीति ने सम्पूर्ण धरा को स्थायी कूड़ादान बना दिया है। विकासशील देशों के तमाम छोटे बड़े शहर मिट्टी की बजाय प्लास्टिक पर निर्मित प्रतीत होते हैं। 'जॉर्डन' जैसी तमाम नदियाँ जिनके नाम पर देशों के नाम हुआ करते थे, वे अब और समुद्र तक नहीं पहुंच पातीं। गंगा जैसी पवित्र और आस्था का केंद्र समझी जाने वाली नदियाँ मल और जहरीले औद्योगिक रसायन अपवाहन का माध्यम रह गयी हैं। पानी की ही भांति, वायु प्रदूषण ने भी 'सदाचारेन पुरुषः शतवर्षानि जीवति' को अंगूठा दिखाया है। प्रतिदिन विभिन्न किस्म के नए और असाध्य रोग जन्म ले रहे हैं। खाद्य और पेय वस्तुओं में जहरीले कीटनाशकों की बढ़ती मात्रा मानवता को सामूहिक अपंगता की ओर धकेल रही है। हमारी ऐसी कोई दैनिक गतिविधि नहीं रही जिसमें कैंसर या हृदयघात का खतरा न हो। सन 2008 में ही 1.27 करोड़ कैंसर के नए और 76 लाख कैंसर से मृत्यु के मामले सामने आये हैं। हृदयघात से मृत्यु के इसी वर्ष में 1.73 करोड़ मामले, कुल मृत्यु का एक तिहाई हैं। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार आज तक युद्ध में मारे गए लोगों की संख्या पृथ्वी की वर्तमान आबादी के आधे से भी अधिक है। ये सब आंकड़े अल्पविकसित देशों के अनुपलब्ध आंकड़ों से इतर हैं। इसी गति से उन्नत होता विज्ञान जल्द ही विनाश की कहानी लिखेगा, इसमें दोराय नहीं।

आशा करता हूँ कि मानवता अपनी शत-वर्षीय दीर्घनिद्रा का जल्द ही परित्याग कर देगी। अपने सुझावों को किसी और अंक के लिए सुरक्षित रख मैं अपनी कलम को विराम देना चाहूंगा।

राम लाल अवस्थी


अधिकाँश आंकड़े विकीपीडिया, 'होम' वृत्तचित्र, या सम्बंधित शोध पत्रों से लिए गए हैं।
कुछ आंकलन पूर्व के अध्ययन एवं स्मृति पर भी आधारित हैं।

यह लेख एक साप्ताहिक पत्रिका के प्रथम संस्करण में प्रकाशित होना था। सरकारी दुरूहताओं के कारण प्रकाशन अभी तक संभव नहीं हो सका इसलिए ……