Friday, June 28, 2013

ईश्वर एक खोज

जब भाषा और संस्कृति अपने शैशव काल में थी और इंसान ने उत्तरजीविता का सिद्धांत बस सीखा ही था। संस्कारों में अपने से बड़ों का आदर करना सीखा-सिखाया जाने लगा था। रात्रि प्रहर नवयुवा (कर्म) अपनी तमाम गतिविधियों एवं अनुभवों को अपने बुजुर्गों (ज्ञान) से साझा करते थे और जानने की कोशिश करते थे की क्या उनका विकास सही दिशा में हो रहा है। परिवर्तन और उन्नति के क्रम में कर्म के स्थान पर ज्ञान का विकास ज्यादा हुआ। कारण स्वाभाविक था : कर्म ऊर्जा और ज्ञान अनुभव के आधीन था। अनुभव को श्रेष्ठता के श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करते समय अपने पूर्वानुभव को सुनाने की अनायास 'जरूरत' महसूस होने लगी जो उत्तरोत्तर 'आदत' में परिवर्तित होने लगी। इसी क्रम में किसी कुंठित एवं अनुभवशून्य ज्ञान ने उपलब्ध बोध और तार्किक अपारगाम्यता के आधार पर एक ऐसे काल्पनिक श्रेष्ठतम मनुष्य का उदाहरण रच डाला  जो कार्मिक पहुँच से दूर था। कुछ उत्सुक और जिज्ञासु कर्मों ने श्रेष्ठा के उन मानकों को भी दुस्साध्य न रहने दिया। परिणाम स्वरुप श्रेष्ठता के मानक सामान्य से असामान्य और फिर बेहूदे होने लगे। असीम समयोपरांत जब बेहूदगी समस्त सीमाएं पार कर चुकी थी एवं कर्म और ज्ञान के बीच की खाई अभूत्पूर्वक रूप से बढ़ चुकी थी, कर्म ने ज्ञान से ऐसी उत्कृष्टता के नमूने की मांग कर दी, जिसके अभाव में कुछ और नए मानक रचे गए। इन समस्त मानकों के तत्त्व से बनी परिभाषा से पूर्ण उस परिकल्पित श्रेष्ठ मनुष्य को ईश्वर कहा गया। कर्म की पहुँच से दूर अपरिमेय ईश्वर। पुनः जिज्ञासु कर्म ने इस अपरिमेयता के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया और ज्ञान से सशंकित पूछा कि आप उसके बारे में इतना जानते हो मिले होगे या देखा होगा या सुना होगा, ऐसा क्या  किया जाए ताकि हमें भी ऐसे चमत्कार से संपर्क करने एवं स्वयं की उन्नति का अवसर मिले। ज्ञान भी कभी कर्म था और उसे मालूम था कि कर्म से ये संभव नहीं और अगर ऐसे किसी कर्म, जो असंभव हो, की परिकल्पना दुर्लभ होने के कारण कुछ नए कर्म प्रादुर्भाव में आये जिसे 'धर्म' कहा गया। कर्म से कर्म के बीच खाई बनी। एक ने ईश्वर को अस्वीकार कर दिया एवं धर्म को 'कर्मकांड' कहा और नर्क का बीज बोया। दूसरे ने राम का आविष्कार किया और नर्क की फसल काटी।