माँ
के पेट में आने से पूर्व मैंने
ईश्वर से कितनी विनती की थी
कि जिस भूमि में धर्म ग्रंथों
के अनुसार वो खुद जन्म लेने
के लिए तरसता है, मुझे
उसे अपनी जन्म भूमि नहीं बनाना.
लेकिन शायद
मेरे कर्मों का लेखा जोखा
सिमटकर यहीं धकेलता था सो शायद
ईश्वर के हाथ में भी मेरे संतप्त
आंसुओं को पोछने की शक्ति नहीं
बची थी. खैर
जन्म लेने से पहले मैं आप लोगों
को अपना परिचय बता दूं.
मैं इस राष्ट्र
और संस्कृति की एक सामान्य
संतति हूँ, जो
कभी बेटी होती है तो कभी बेटा,
कभी लडकी तो
कभी लड़का, कभी
बहू तो कभी पुरुष, कभी
माँ तो कभी पिता, और
अंततः कब्र पर पैर लटका कर
बैठे वृद्ध. इन
सभी अवस्थाओ से गुजरते हुए
मेरा एक लक्षण स्थिर है,
मेरा दुर्भाग्य.
ये रही मेरी
सांस्कृतिक जीवन यात्रा....
आज
मैं एक अजन्मा शिशु हूँ और चंद
महीनों से अपनी माँ के गर्भ
में चैन की नींद सो रहा हूँ.
यूं तो मैं
अनायोजित गर्भ हूँ लेकिन हूँ
माँ का दुलारा. दुलारा
होने के आभास के अलावा मुझे
नहीं मालूम मेरे माता-पिता
ने मेरे भविष्य के बारे में
क्या योजनायें बनाई हैं.
आज
मेरी माँ कुछ विचलित है,
मेरे पिता
और घर के तमाम वृद्ध उसे मेरे
लिंग पहचान के लिए डॉक्टर के
पास ले जा रहे हैं. बहुत
संभव है अगर मैं स्त्री जाति
का हुआ तो मेरा इस जन्म भूमि
पर सामान्य पदार्पण नहीं होगा.
या तो मुझे
साबुत निकाल फेंका जाएगा या
टुकड़ों में मेरे शरीर के
भिन्न अंग माँ के शरीर से जुदा
होंगे. मैं
अभी अजन्मा हूँ इसलिए मेरी
पीड़ा विशेष महत्व नहीं रखती
और निर्णय लेने का अभी मेरे
पास अधिकार नहीं. इस
कर्म में मेरी माँ को जो अपूरणीय
शारीरिक और मानसिक क्षति होगी
उसकी शायद किसी को फ़िक्र नहीं.
भगवान का
शुक्र है मेरी माँ अविवाहित
नहीं अन्यथा इस संभ्रांत समाज
में उसका जीना नामुमकिन हो
जाता और मेरा पुरुष होना भी
किसी काम न आता, मुझे
जन्म से पूर्व ही अलविदा कहना
होता. इस
सारी प्रक्रिया में वो डॉक्टर
भी सहयोगी होगा जो समाज सेवा
की शपथ ले अपनी धन क्षुधा को
मिटा रहा है.
आज
मेरा जन्म हुआ है और मैं स्त्री
हूँ. सारे
घर में सन्नाटा पसरा है और हर
चेहरा खिन्न है. मेरी
माँ भी मेरे आने से दुखी है,
इसीलिए वो
परिवार के तमाम सदस्यों के
कुपित शब्द बाणों को सहजता
से ग्रहण कर रही है. मैं
अपनी उस माँ की चौथी पुत्री
हूँ, जिसके
जीवन का एक मात्र उद्देश्य
पुत्र को जन्म देना है.
हालांकि
मेरी बड़ी बहनें जीवित हैं
लेकिन परिवार के सदस्यों का
धैर्य जवाब दे रहा है और जन्म
लेने के बावजूद मेरा जीवन खतरे
में है. बहुत
संभव है कि मुझे मार कर या जीवित
दफना दिया जाए.
तमाम
अभावों के बीच मेरी उन्नति
हो रही है. शुक्र
है कि माता-पिता
की घोर लापरवाही के बावजूद
मुझमें किसी प्रकार की शारीरिक
अपंगता नहीं है. मेरी
बाल्यावस्था मेरे सगे सम्बन्धियों
और परिवार के परिचितों की हवस
का शिकार है. मुझे
नहीं मालूम कि किस प्रकार
विरोध किया जाए जबकि मेरे
माता-पिता
मुझे उनका आदर करना और उनकी
आज्ञा का पालन करना सिखाते
हैं. इन
व्यक्तियों के पास आते ही मेरी
रूह सिहर उठती है. मानसिक
रूप से प्रताड़ित मैं शायद
ही इस जीवन में इस दुर्गति को
भुला सकूं. जो
भय और घ्रणा मेरे दिल में जगह
बना रहे हैं, उनसे
उबर पाना और जीवन को निष्पक्ष
रूप से देखना शायद ही संभव हो.
इसकी
तुलना में परिवार के तमाम
सदस्यों का क्रोधित हो अकारण
दिया गया शारीरिक दंड क्षुद्र
मालूम पड़ता है. अक्सर
मुझे मेरे अपराध का ज्ञान भी
नहीं होता. घर
हो या विद्यालय बड़ों से पिटना
शायद नियति बन गया है.
इनमें से
किसी को अंदाजा नहीं कि मेरे
स्वाभिमान, निर्भीकता,
निर्मलता
और गौरव को किस स्तर की क्षति
हो रही है और भीरुता, झूठ,
छल जैसे गुणों
का व्यापक विस्तार हो रहा है.
कभी भी किसी
दंड के कारण की कोई स्पष्ट
व्याख्या नहीं मिलती.
चहुँ ओर नैतिक
शिक्षा का जाल बिछा है किन्तु
बड़ों में नैतिकता का एक भी
लक्षण स्पष्ट नहीं होता बल्कि
व्यवहार में मुझे भी अनैतिकता
का ही पाठ पढ़ाया जाता है.
फर्क नहीं
कि मैं समाज के उच्च वर्ग से
हूँ या निम्न मुझे विपरीत वर्ग
से घ्रणा करने की सीख मेरे
परिवार और वर्ग से प्राथमिकतः
मिलती है.
आज
मेरा किशोरावस्था में प्रवेश
हो चुका है और मुझे स्त्री
पुरुष के बीच भेद का ज्ञान भी.
लिंग भेद से
परे अब मुझे समाज के आधे हिस्से
से अलग कर दिया गया है.
घर के मर्द
खूबसूरती से गीता-रामायण
की सूक्तियों में पड़ोसियों
के पतन की अभिलाषा पिरोते हैं.
और औरतें
अपने पराये के गूढ़ रहस्यों
का ज्ञान देती हैं.
सिद्धांततः
मुझे प्रेम, अनुराग,
आदर,
स्वाभिमान,
निर्भीकता,
ईमानदारी,
सत्य और
ब्रम्हचर्य की शिक्षा दी जाती
है और व्यवहारतः घ्रणा,
द्वेष,
अपमान,
दंभ,
भीरुता,
बेईमानी,
छल और लम्पटता
की. लडकी
होने पर मेरा सम्बन्ध शोषित
वर्ग से और लड़का होने पर शोषक
वर्ग से होता है.
घर
की चाहरदीवारी में कैद मैं,
लडकी,
सर्वप्रथम
पुरुषों में दानव देखना,
अविश्वास
और कायरता का पाठ सीखती हूँ.
मेरे हंसने
बोलने और विचार व्यक्त करने
पर पाबंदी होती है. घर
से बाहर निकलने पर लोगों की
कामुक द्रष्टि का शिकार,
मैं,
मांस का वो
लोथड़ा हूँ जिसे बुद्धिजीवी
से लेकर असभ्य तक लम्बी जीभ
निकाल मौक़ा मिलते ही चट कर
जाना चाहता है. चारो
ओर से फब्तियों और छेड़छाड़ की
बारिश जीवन पर प्रश्न चिन्ह
लगाती है. दो
कदम सुनसान में बढाने पर लोग
छल-भय
और बल का प्रयोग कर मेरे शरीर
और आत्मा को तार तार करते हैं
और मेरे पास इस बवंडर से लड़ने
का न तो साहस रह जाता है और न
समर्थन. चंद
पलों के काल्पनिक सुख के लिए
मुझे धूल में मिलाते हुए इस
समाज के ठेकेदारों को ज़रा भी
अफ़सोस नहीं होता.
घर
से कदम बाहर रखते ही मैं,
लड़का,
अपने वातावरण
से धर्म-जातिगत
उन्माद, और
कामुकता की शिक्षा पाता हूँ.
मेरी रचनात्मक क्रियाशीलता
और ऊर्जा समाज के किसी कृत्य
में उपयोगी न हो सम्भोग चिंतन
की आग में कूद जाती है और मैं
उपरोक्त निकृष्ट कर्मों में
समाज का हाथ बंटाता हूँ.
और इस दुर्दशा
की ओर जाने में मेरे माता-पिता
की निर्देशन शून्यता और
बुद्धिहीनता बढ़ चढ़ कर सहयोग
देती है.
आज
जब मेरा युवावस्था में प्रवेश
हो चुका है और मुझसे घर परिवार
और समाज की जिम्मेदारी उठाने
की आशा की जानी चाहिए मुझे खुद
का पेट चलाने के लिए भी संघर्ष
करना पड़ता है एवं अधिकांशतः
अपने अभिभावकों पर निर्भर
रहना पड़ता है.
बेशर्मी
से बढ़ती आबादी ने एक भी कदम
चलना मुश्किल कर दिया है.
संसाधनों की कमी से जूझ रही
जनसँख्या को एक बार फिर रोटी
कपडा मकान और अब पानी
के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.
सरकार की
गलत नीतियों ने समाज को मानसिक
रूप से भ्रष्ट और आर्थिक रूप
से नष्ट कर दिया है.
राष्ट्र
के प्राकृतिक संसाधनों का
दोहन कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियां
राजनेताओं की तिजोरियां भर
रही हैं.
वैज्ञानिक
और शोधपरक विचारधारा की कहीं
पूछ नहीं.
सरकार
को मूढ़ रट्टू तोते और निजी
कंपनियों को फेरी वालों की
जरूरत है,
किसी
दक्ष और विवेकशील इंसान के
लिए समाज में कोई जगह नहीं.
एक
युवती होना जैसे अभिशाप बन
गया है. मेरी
शिक्षा की गुणवत्ता मेरे चेहरे
की सुन्दरता और शारीरिक बनावट
से आंकी जाती है. मेरी
कार्यकुशलता मेरे बॉस से मेरी
अंतरंगता पर निर्भर होती है.
तमाम लम्पट
सहकर्मी मेरा सानिध्य पाने
के लिए किसी भी स्तर तक गिरने
को बेताब रहते हैं. मेरे
शरीर की भेद्यता मेरे कपडे
और सड़क के लुच्चे निर्धारित
करते है. मेरे
शुभचिंतकों की मेरे जीवन के
प्रति उदारता मेरी किसी पुरुष
के साथ अंतरंगता के व्युत्क्रमानुपाती
है. हर
तरह की योग्यता और स्वावलंबन
के बावजूद शादी के लिए मेरी
बोली लगाई जाती है. मेरी
जैसी कितनी युवतियों ने शादी
का मूल्य चुकाने के लिए अपना
जीवन दांव पर लगाया है इसका
कोई आंकड़ा न मेरे पास है और
न सरकार के पास. ऐसे
ही किसी वहशी को मेरे गले पहनाने
के लिए मेरे पिता को सारे जीवन
की जमा पूंजी या विरासत लगानी
होगी और हो सकता है वो कर्ज
में भी डूब जाएँ. अक्सर
तो मेरी जाति भी इस लूट में
भाग लेती है और अपने ही पिता
का हर संभव शोषण करती है.
एक
शिक्षित युवा होकर भी मेरे
विचारों पर रिश्तों और खुराफातों
का दबदबा है. परिवार
की महत्वाकांक्षाओं को पूरा
करने के लिए मुझे घूस खाने और
निर्विकल्प रूप से औरों का
शोषण करने के लिए प्रेरित किया
जाता है. तमाम
तरह के अपराधों को स्वीकार
और अंगीकार करने के लिए छल-बल-भय
हर चीज का सहारा लिया जाता है. मेरा
डॉक्टर मित्र मानव अंगों की
तस्करी करने, अध्यापक
मित्र क्षात्रों को दुर्गुण
देने और समाज में गलत आदर्श
स्थापित करने, पादरी
मित्र बाल-यौन
शोषण और धार्मिक असहिष्णुता
फैलाने, प्रबंधक
मित्र छल से संपत्ति हड़प करने,
अधिकारी
मित्र सरकारी पैसे की लूट,
प्रशासनिक
मित्र अपराधियों को बचाने और
आम जनता को डराने, नेता
मित्र समाज का विघटन करने एवं
उपरोक्त सभी कर्मों की भूमिका
बनाने में व्यस्त है. अपनी खीसें
भरने के लिए मेरा पिता मेरे
भावी जीवन साथी के पिता को
भिखारी बना देना चाहता है.
और मेरे ही
तमाम मित्र अनार्जित धन लालसा में अपने
ही मूल्यों को नालियों में
बहाते हैं. चारो
ओर अकर्मण्यता और लूट का राज्य
पसरा हुआ है. मेरे
चेहरे के पीछे सिर्फ दो रूप
है, शोषक
या शोषित, अपराधी
या पीड़ित.
शादी
के बाद, जब
से इस घर पे कदम रखा है स्वाभिमान
सड़े गोबर से भी ज्यादा पतित
हो गया है. कई
वर्ष बीतने और ससुराली जन की
तमाम सुश्रूषा करने पर भी एक
इंसान सा सम्मान पाना मुश्किल
हो गया है. दफ्तर
जाना तो कब का बंद हो चुका,
घर से बाहर
निकलने पर भी पाबंदी है.
घर के तमाम
सदस्यों के लिए आया और पति के
लिए काम क्रीडा का साधन से
ज्यादा शायद मैं कुछ नहीं.
मेरे जीवन
से सम्बंधित फैसले न मायके
में मुझसे पूँछ कर लिए गए और
न यहाँ लिए जाते हैं. पति
शारीरिक पीड़ा दे अपने कुकर्मों
को छुपाता है. शादी
होते ही मेरा नाम जैसे समाज
के अभिलेखों से मिट गया है.
तीन बेटियाँ
हैं मेरी, दो बेटियाँ नष्ट कर चुकी और
छठी बार पेट से हूँ. घर
वालों की पुत्र लालसा में
बच्चे पैदा करने की मशीन बनी
जा रही हूँ. स्त्री
पैदा करना एक स्त्री के लिए
कितना पीड़ा दायक है आप मेरी
काया देख कर अंदाज सकते हैं.
युवावस्था
में ही रक्त की कमी से शारीरिक
रूप से अर्ध मृत और कटु वचनों
का जहर पी मानसिक रूप से पूर्ण
मृत, मैं,
पुत्र जन्म
की आशा में जीवित हूँ.
हर सुबह
बेटियों की गिनती करना मेरा
पहला काम है...
उम्र
के तीसरे पड़ाव पर पहुंचा मैं,
पुरुष,
अपने समस्त
सपनों की कब्र पर खडा हूँ.
तमाम सुविधाओं
की बात तो बेमानी होगी,
परिवार का
सर छुपाने के लिए एक अदना सा
माकान भी नहीं है. आमदनी
की एक एक पाई दाल रोटी के जुगाड़,
बच्चों की
पढ़ाई और बेटियों के दहेज़ का
साधन हो गयी है. हर
छोटी से छोटी आवश्यकता के लिए
दफतरों में दीर्घकालिक नाक
रगड़ता हूँ और हर मौलिक अधिकार
की प्राप्ति के लिए भारी कीमत
चुकाता हूँ. मेरी
संपत्ति पर कब किसकी नजर लग
जायेगी ये तो शायद ईश्वर को
भी मालूम न होगा. इस
अवस्था पर पहुँच कर भी मेरे
व्यक्तिगत निर्णय समाज के
बुजुर्गों और सह-वासियों
की कृपा के पात्र हैं और उन
तमाम कुरीतियों में,
जिनका मैं
स्वयं आजीवन भुक्त भोगी रहा,
उनकी हाँ
में हाँ मिलाता हूँ. चारों
ओर के अत्याचार से पीड़ित मैं
अपनी खुन्नस बच्चों और पत्नी
पर निकालता हूँ. मेरे
चरित्र का निर्माण इस बात पर
निर्भर नहीं करता कि मैं बेईमान,
भ्रष्ट,
अपराधी या
धोकेबाज हूँ और माता-पिता
की जूते से सेवा करता हूँ बल्कि
इस बात पर निर्भर करता है कि
मैं अपनी महिला सहकर्मियों
के साथ कितना सहयोगी हूँ.
अपने
जीवन के अंतिम पड़ाव पर बैठे
हम वृद्ध इस समाज का सबसे गौण हिस्सा हैं. हमारे
ही कुपुत्रों ने हमारी ही
संपत्ति से हमें ही बेदखल सा
कर रखा है. इस
संपत्ति हस्तांतरण में जो
खूनी खेल इन्होने आपस में खेला
उससे हमारी आत्मा आज भी दहल
उठती है. दो
वक्त की रोटी ईश्वर की कृपा
द्रष्टि की मोहताज हो गयी है.
जिस परिवार
को हमने अपने खून से सींचा वो
अब हमारे स्वर्ग सिधारने की
बाट जोह रहा है और हमें सुन्दरी
के चेहरे पर हुए चर्म रोग की
तरह देखता है. सेवा
के लिए तो पूछो ही मत छोटे
बच्चों को भी हमारे पास नहीं
फटकने दिया जाता. मरने
से पहले ही म्रतप्राय हम
वृद्धावस्था में होने वाले
तमाम रोगों को अपनी संतति से
छुपाते हुए, अन्यथा
लानत और फटकार से इलाज होगा,
यमदूत का
इन्तजार कर रहे हैं.
सामान्य
किन्तु दीर्घकालिक बीमारी
की वजह से आज से तेरह दिन पहले
मैंने देह त्याग दी. पीछे
मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ
कि मेरे घर में कोई विशाल एवं
भव्य आयोजन हो रहा है.
मेरे पुत्र
जिनसे घ्रणा करते थे आज उन्ही
का स्वागत सत्कार और स्तुति
कर रहे हैं. सभी
खामोश हैं किन्तु अन्दर का
हर्षोन्माद कभी कभी फूट पड़ता
है. आयोजन
को सफल बनाने के तमाम प्रयास
किये जा रहे हैं. इस
बीच मेरी मृत्यु से घायल,
घर के एक
सुनसान कोने में बैठी मेरी
पोती के मष्तिष्क में अनायास
ही ये ख़याल दौड़ जाता है "अगर
इस आयोजन में लगी कीमत का दसवां
हिस्सा भी दादा जी के इलाज में
खर्च किया गया होता तो शायद
वो जीवित होते...." और
वो फफक पड़ती है.
ram