उत्तर भारत के दो प्रदेशों में बंटा एक क्षेत्र बुंदेलखंड, अधिकाँश ऊसर, लम्बे समय से भारत सरकार के तिरस्कार की कहानी बयां करता है. प्राकृतिक एवं समसामयिक आपदाओं का दंश झेल रहे इसी क्षेत्र में सारी विपत्तियों को बगलों से झांकता एक गाँव है. सड़क, बिजली और पेयजल की सुविधाओं से लैस यह गाँव बुंदेलखंड के एक आदर्श गाँव कहलाने का हक़ रखता है. घरों में पानी की सीधी आपूर्ति होने के कारण कुंए इष्टदेव से अभिशप्त हो परिवार के वृद्ध की भांति गौण और कचरे के ढेर को सहेजने का साधन हुए जा रहे हैं एवं गाँव के दबंग तालाबों में अपने भावी सपनो के महल को साकार कर रहे हैं. इसी गाँव के बीचोबीच इस मकान का एक मात्र दरवाजा पश्चिम की ओर खुलता है. दरवाजा खुला होने पर सड़क और रसोई के बीच सिर्फ सुबह और शाम का फर्क रहता है. सूर्य के पूर्वान्ह होने के कारण मकान के अन्दर का अधिकाँश हिस्सा अस्पष्ट है किन्तु दीवार से परावर्तित हल्की धूप ने दस्तक दे आँगन की स्थिति स्पष्ट दी है. मकान के सबसे आगे की छत बाबरी मस्जिद की भाँती क्षतिग्रस्त होने के कारण लोहे की पुरानी चादरों से ढकी होकर इसके अन्तःवासियों की आर्थिक स्थिति को नंगा करती है. आँगन में ही दीवार से सटी, सामने की छत को जाती, मिट्टी से बनी सीढ़ियों के बीचों बीच बैठा कुछ ९-१० साल का अर्धनग्न बच्चा दूध के साथ कल की रोटियों के सबूत मिटा रहा है. छत पर एक छोटी सी १०-१२ साल की लडकी का सिल पर बट का घिसना और पास बने झोंपड़ीनुमा कमरे से निकलती धुंए की लहरें दैनिक क्रियाकलाप की चुगली कर रही हैं.कभी कभी उठने वाली ऊंची आवाजें घर में और लोगों की उपस्थिति दर्ज कराती हैं. आँगन के एक कोने पर स्नान, बर्तन धोने और लघुशंका करने की एकीकृत जगह है. उसी जगह पर एक सिल में बैठा अधेड़ स्नान की तैयारी बना रहा है. बहुत देर तक अपरिवर्तनीय इस स्थिति की काल गणना नेपथ्य में बज रहे समकालीन फ़िल्मी गाने करते हैं. अचानक बच्चा सकुचाया हुआ.. "पिता जी नल बंद कर दीजिये, बहुत देर से पानी बह रहा है". पिता शायद इस अनुग्रह को अनसुना कर देता है. बच्चा फिर से उसी बात पर थोडा बल देकर पिता का ध्यान पाने में सफल होता है "जब तक आ (पानी आने का कुछ निश्चित समय है) रहा है तब तक इस्तेमाल कर लेते है". बच्चा "लेकिन ये तो बह रहा है". पिता बोलना जरूरी नहीं समझता.
आज कई वर्षों बाद वही बच्चा, क्षमा कीजिये कुछ ३० वर्ष का हृष्ट पुष्ट युवा, कुछ दिनों के अवकाश पर विदेश से घर आया है. इस बीच गाँव से हरे रंग ने मुंह मोड़ लिया है और चहुँ ओर कंकरीट के खेत नजर आते हैं. आज भी उस घर की छत वहां के अंतःवासियों की आर्थिक स्थिति बयाँ करती है परन्तु पूर्व के विपरीत. आज भी सूर्य पूर्वान्ह और घर का 'मुख्य' दरवाजा पश्चिम की ओर ही है लेकिन अतिथि कक्ष में कृत्रिम प्रकाश की प्रचुरता और लोगों का अभाव है. उत्सुक पड़ोसी, युवक की आजीविका को लेकर तमाम किस्म की अटकलें लगाते हुए उसकी तारीफ़ के कसीदे पढ़ते हैं. कुछ देर बीतने पर वृद्ध पिता आज फिर स्नान की तैयारी बनाने लगता है. बदले हुए वक्त में स्नान के लिए दूर के हैंडपंप का गन्दला पानी ही एकमात्र सहारा है. उम्र बढ़ने के साथ युवा का पितृ-भय आदर में परिवर्तित हो चुका है अतः वो पिता से पानी की बाल्टियाँ ले हैंडपंप का रुख करता है. वहां, किसी समायोजन में भाग लेने आयी सी भीड़ जनसँख्या विस्फोट और पानी की किल्लत का उत्कृष्ट नजारा प्रस्तुत कर रही थी और हैंडपंप मानवता के इस नाटक पर आंसू बहाता सा प्रतीत होता था. लोगों की झुंझलाहट से उभरी वेदना बर्तनों के भीषण कोलाहल में घुट जाती थी. घंटों के इन्तजार के बाद उसकी बारी आती जान पड़ती है.
बदहवासी से चीखता एक अधेड़ पड़ोसी दरवाजे तोड़ता सा आँगन में पहुँच छटपटाकर गिरता है "चाचा, भैय्याआ...हैंडप.... " और दरवाजे की ओर इशारा कर बेहोश हो जाता है. रसोई के दरवाजे पर टिककर खडी वृद्ध माँ उस दिशा की ओर भागती है और थोड़ा दूर सड़क पर जा गिरती है...